राजीव खरे: एक चेहरा, एक चाल, और पीछे छिपी दलाली की दीवार
सरकारी नौकरी का सपना दिखाकर युवाओं को ठगने वाला ‘पत्रकार’ आज भी बेनकाब नहीं हुआ, क्योंकि ये कहानी सिर्फ एक ठग की नहीं, बल्कि उस तंत्र की भी है जो आँख मूंदे बैठा है।

पत्रकारिता की परछाईं में बना एक नया भय
‘पत्रकार’ शब्द जहाँ जनता के विश्वास का प्रतीक होना चाहिए, वहीं कुछ घटनाओं ने इसे संदेह और भय से जोड़ दिया है। प्राप्त शिकायतों और दस्तावेज़ी प्रमाणों के अनुसार, स्वयं को पत्रकार और प्रभावशाली व्यक्ति बताने वाले राजीव खरे नामक व्यक्ति पर आरोप है कि उसने कई युवाओं को सरकारी नौकरी दिलाने का झांसा देकर उनसे पैसे वसूल किए। पीड़ितों का कहना है कि उन्हें व्हाट्सएप चैट, सरकारी दफ्तरों की तस्वीरें, और कुछ मंत्रियों-अधिकारियों के नामों का हवाला देकर भरोसे में लिया गया।
छतरपुर / भोपाल (मध्य प्रदेश) hct desk : वर्ष 2021 के मई महीने से शुरुआत हुई इस ठगी की दास्तां का सार यह है कि मध्य प्रदेश के जिला छतरपुर के सटई रोड स्थित गुरैया पुलिया के पास पीताम्बरा कॉलोनी निवासी राजीव खरे द्वारा “बृजेश रैकवार” नामक एक बेरोजगार युवक से कथित तौर पर उसके पिता के स्वर्गवास हो जाने पर अनुकम्पा नियुक्ति के नाम पर नौकरी दिलाने का झांसा देकर 65000/- हड़प लिया।
बताया जाता है कि राजीव खरे कथित तौर पर एक पत्रकार है जो स्वयं को मुख्यमंत्री का मनपसंद खास पत्रकार बताते हैं। तथाकथित पत्रकार राजीव खरे के द्वारा न सिर्फ उपरोक्त उल्लेखित ठगी के शिकार वह बेरोजगार युवक बृजेश रैकवार हुआ, बल्कि इसने अपनी शातिराना चाल से एक बधिर दिव्यांग को भी झांसे में लेकर 19500 /- (4500 + 15000) की रकम गबन किए बैठा है।
सवाल यह नहीं है कि सबूत कितने हैं, सवाल यह है कि जब ये सब इतने स्पष्ट रूप में सामने हैं, तो प्रशासनिक या पुलिस स्तर पर कोई ठोस कदम अब तक क्यों नहीं उठाया गया…?
मामला व्यक्ति का नहीं, प्रणाली का भी है
इस पूरे प्रकरण को केवल ‘राजीव खरे‘ नामक व्यक्ति तक सीमित रखना इस मामले की गंभीरता को कमतर आंकना होगा। शिकायतकर्ताओं का मानना है कि ऐसे कारनामे किसी नेटवर्क या तंत्र के बिना संभव नहीं। जो कोई भी वर्षों तक ऐसी गतिविधियाँ करता रहा हो, उसके पीछे किसी मौन सहमति, संपर्कों की ढाल या प्रेस कार्ड की ओट जैसी चीज़ों की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि कई पीड़ितों ने मीडिया संस्थानों, पत्रकार संगठनों और प्रशासन से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन अब तक कहीं से कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया या संज्ञान सामने नहीं आया। यह खामोशी क्या किसी ‘बड़े नाम’ को बचाने का संकेत है, या सिर्फ सामान्य उदासीनता? जो भी हो, इस चुप्पी ने प्रश्नों को और तीखा कर दिया है।
पत्रकारिता की आत्मा, भरोसे की कसौटी
सबसे बड़ा आघात उन युवाओं को लगा है जो पत्रकारिता को सामाजिक बदलाव का माध्यम समझते थे। एक पीड़ित का कथन बेहद मार्मिक है :- “अब भी भरोसा है कि कोई पत्रकार आवाज़ उठाएगा, वरना मैं कभी भी टूट जाऊंगा।”
यह केवल एक व्यक्ति की पीड़ा नहीं, बल्कि पत्रकारिता के सामने खड़ी नैतिक जिम्मेदारी की गुहार है। यह घटना हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या हमारी पत्रकारिता केवल शब्दों का व्यापार रह गई है, या उसमें अब भी वह आग बाकी है जो किसी पीड़ित के लिए पहली न्यायिक दस्तक बन सके?
पत्रकारिता, यदि केवल घटनाओं का दस्तावेज़ बनकर रह जाए, तो उसका मूल उद्देश्य खो जाता है। यह लेख आरोपपत्र नहीं, बल्कि उन लोगों की उम्मीदों का प्रतिबिंब है जो किसी दिन न्याय की रोशनी की आशा में जी रहे हैं।
यह खबर नहीं, एक दस्तावेज़ है
यह लेख किसी व्यक्ति विशेष को बदनाम करने की मंशा से नहीं लिखा गया है। बल्कि, जनहित में उन शिकायतों और अनुभवों की प्रस्तुति है जो पत्रकारिता की गरिमा और सामाजिक व्यवस्था की जवाबदेही से जुड़े हैं। यदि प्रशासन, मीडिया संगठन और समाज अब भी चुप रहते हैं, तो यह चुप्पी केवल नैतिक पतन नहीं, बल्कि एक प्रकार का सह-अपराध बन जाती है जिसकी कीमत किसी न किसी को कभी न कभी चुकानी ही पड़ती है।
रिपोर्ट की शक्ल में सामने आया यह लेख दरअसल एक दस्तावेज़ है, उन सिसकियों, शिकायतों और सताए हुए नागरिकों की आवाज़ जो व्यवस्था को दलाली के कॉरपोरेट में तब्दील होते देख रहे हैं, मगर बोल नहीं पा रहे। और अगर अब भी कुछ नहीं बदला, तो अगला शिकार कोई और नहीं; शायद आप होंगे, शायद हम।
सवाल जो चुभन का अहसास दिलाते रहेंगे :-
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- जब शिकायतें दर्ज हैं, स्क्रीनशॉट उपलब्ध हैं, चैट मौजूद है — तो अब तक कार्रवाई क्यों नहीं?
- क्या कोई पत्रकार संगठन इसकी जिम्मेदारी लेगा?
- क्या प्रशासन इस लेख को जांच के प्रारंभिक बिंदु की तरह लेगा?
- और सबसे बड़ा प्रश्न — क्या हम अब भी चुप रहेंगे?
