नगर पंचायत पलारी में प्राचार्य को खुद बजानी पड़ती है घंटी !
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारों के बीच गुरुर ब्लॉक के कन्या उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय पलारी में प्रशासनिक उपेक्षा की घंटी हर दिन बज रही है - वह भी प्राचार्य के हाथों से

बालोद ज़िले के गुरुर विकासखंड के अंतर्गत नगर पंचायत पलारी में शासन की घोषणाओं की चमक तो है, मगर ज़मीनी हकीकत अब भी धुंधली है। गांव से नगर पंचायत बनने की यात्रा पूरी कर लेने के बावजूद पलारी की कई बुनियादी समस्याएँ जस की तस हैं। इनमें सबसे शर्मनाक उदाहरण है कन्या उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय पलारी की दुर्दशा, जहाँ आज तक एक चपरासी तक की नियुक्ति नहीं हो सकी है।
विद्यालय की स्थापना को वर्षों बीत चुके हैं, परंतु आज भी वहाँ शिक्षक और प्राचार्य को प्रशासनिक उपेक्षा का बोझ ढोना पड़ रहा है। विद्यालय में घंटी बजाने से लेकर फर्श साफ करने तक का काम शिक्षकों को खुद करना पड़ता है। हैरानी की बात तो यह है कि यहाँ के प्राचार्य सी.आर. ध्रुव, जो स्वयं श्रवण समस्या से जूझ रहे हैं, को रोज़ सुबह बच्चों के लिए घंटी बजानी पड़ती है ताकि ‘प्रार्थना सभा’ समय पर शुरू हो सके।
चपरासी नहीं, तो शिक्षक ही बने चौकीदार
नगर पंचायत बनने के बाद उम्मीद थी कि प्रशासनिक सुविधाओं का दायरा बढ़ेगा, लेकिन शिक्षा विभाग की लापरवाही ने सब उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कन्या उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय में चपरासी की कमी के चलते शिक्षक अब चौकीदार, सफाईकर्मी और माली की भूमिका निभा रहे हैं। किसी को कक्षा की सफाई करनी पड़ती है तो कोई पानी की व्यवस्था में जुटा रहता है।
प्राचार्य ध्रुव बताते हैं कि “कई बार उच्च अधिकारियों को अवगत कराया गया है, पर हर बार जवाब मिलता है कि प्रस्ताव प्रक्रिया में है।” यही प्रक्रिया अब वर्षों से स्थायी बन चुकी है।
‘बेटी बचाओ’ के बीच ‘बेटी भगाओ’ की कहानी
यह वही स्कूल है जहाँ बेटियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर योजनाएँ चल रही हैं, पर ज़मीनी स्तर पर हालात ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नहीं बल्कि ‘बेटी भगाओ’ की तरह प्रतीत हो रहे हैं। जब शिक्षा का वातावरण ही सम्मानजनक न रहे तो समाज में बेटियों के भविष्य की बात करना खोखला हो जाता है।
नगर पंचायत बनने के बाद भी इस स्कूल की तस्वीर नहीं बदली। छात्रों को व्यवस्था के अभाव में खुद सफाई या पानी भरने जैसे काम करने पड़ते हैं। शिक्षा के इस मंदिर में शिक्षक और छात्र दोनों ही मजबूर हैं एक व्यवस्था के आगे, जो सुनने को तैयार नहीं।
प्रशासनिक संवेदनहीनता की मिसाल
शिक्षा विभाग और नगर पंचायत प्रशासन की यह चुप्पी सवाल खड़े करती है कि आखिर प्राथमिकता की सूची में बेटियों की शिक्षा कहाँ है? पलारी जैसे कस्बे में एक चपरासी की नियुक्ति न कर पाना शासन की ‘स्मार्ट प्रशासन’ की परिभाषा पर करारा तमाचा है।
यह विडंबना है कि जिस प्रदेश में करोड़ों के बजट ‘बेटी पढ़ाओ’ योजनाओं पर खर्च दिखाए जाते हैं, वहाँ एक छोटे से स्कूल में घंटी बजाने के लिए भी प्राचार्य को खुद आगे आना पड़ता है।
कब बजेगी जिम्मेदारी की घंटी?
अब सवाल यह है कि क्या पलारी के इस स्कूल को नया चपरासी मिलेगा, या फिर प्राचार्य को रोज़ घंटी बजा-बजा कर और बहरा होने दिया जाएगा? सिस्टम की यह नींद आखिर कब टूटेगी जब शिक्षकों की जगह बच्चे झाड़ू उठाने लगेंगे, या तब जब ‘बेटी पढ़ाओ’ का नारा अखबारों से उतर जाएगा?






