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जब आरोपी मंचस्थ होकर अदालत को चिढाने लगे…!

नेता का ‘धार्मिक’ चेहरा बनाम विधवा की ‘सीलबंद’ अनसुनी फरियाद...?

सरगुजा hct : भाजपा जिलाध्यक्ष भारत सिंह सिसोदिया के लिए हाल के सप्ताह बेहद धार्मिक और राष्ट्रप्रेम से लबरेज़ रहे। नाग पंचमी पर मंच और राजधानी रायपुर में “हर घर तिरंगा” कार्यशाला ! हर कहीं मंच का केंद्र वही चेहरा रहा। लेकिन उन्हीं की मौजूदगी, सरगुजा ज़िले की एक न्यायिक फाइल में दर्ज संगीन धाराओं की याद दिला जाती है, जिसे आज भी ‘संवेदनशील’ बताकर सील रखा गया है।

दरअसल, यह वह मामला है जहाँ एक अशिक्षित विधवा की पुश्तैनी 2.8 हेक्टेयर ज़मीन पर ‘कानूनी सहायता’ के नाम पर दस्तखत करवाकर ज़मीन की रजिस्ट्री कर दी गई। कागज़ी लेनदेन और कथित भुगतान की वैधता पर आज भी सवाल हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है – जब कोर्ट ने एफआईआर दर्ज करने का आदेश दे दिया, तब भी ‘वह’ नाम हर आयोजन में क्यों मंचित है?

कागज़ पर न्याय, मंच पर आतिथ्य !

पुलिस, एसपी और आईजी के दरवाजे खटखटाकर थक चुकी महिला को जब न्याय नहीं मिला, तो वह कोर्ट पहुँची। सीजेएम ने इसे गंभीर अपराध मानते हुए आईपीसी की धारा 420, 467, 468, 471, 120B और 34 के तहत FIR दर्ज करने का आदेश दिया। नतीजा — एफआईआर क्रमांक 482/25, थाना कोतवाली अंबिकापुर में दर्ज हुई।

सात आरोपियों में एक नाम, सत्ता के सबसे करीब बैठा हुआ।
और इसी दर्ज मामले में आरोपी, वही व्यक्ति, विधायक की बगल में मुस्कुरा रहा होता है। अफसरों की मौजूदगी में सम्मानित मुद्रा में मंच साझा करता है। यही नहीं, यह दृश्य बार-बार, लगातार दोहराया जाता है – जैसे अदालत का आदेश महज कानूनी औपचारिकता हो और मंच ही असली अदालत…!

संवेदनशीलता या सत्ता-संरक्षित संवेदनहीनता?

जिस केस को खुद कोर्ट ने गंभीर माना, उसे पुलिस ने ‘संवेदनशील’ बताकर फाइल सील कर दी। न पूछताछ हुई, न गिरफ़्तारी, न कोई सार्वजनिक बयान। अगर यही ‘संवेदनशीलता’ है, तो आम नागरिकों के केस में क्यों यह शब्द लागू नहीं होता? क्यों आम लोगों को मामूली आरोपों में पुलिस उठा लेती है, और सत्ता से जुड़े चेहरों के लिए संवेदनशीलता की ढाल बिछा दी जाती है?

यह सिर्फ तकनीकी चूक नहीं, बल्कि एक सड़ी हुई व्यवस्था का आईना है — जहाँ अपराध दर्ज होने के बाद भी अफसरों की मौजूदगी में आरोपी सम्मान पाता है, और विधवा की चिट्ठियाँ कोर्ट और कंट्रोल रूम की सीढ़ियों पर दम तोड़ती हैं।

जब आयोजन से ज़्यादा चुभने लगती है मंशा

अब मामला सिर्फ एफआईआर या कोर्ट का नहीं रहा। अब मुद्दा यह है कि जब जनता बार-बार किसी को मंच पर देखती है, तब उसकी नजरें सिर्फ उस चेहरा नहीं, मंच के पीछे की मंशा को पढ़ने लगती हैं। ये निगाहें अब आयोजन की सजावट नहीं, प्रशासन की संलिप्तता तलाशती हैं।

क्या कलेक्टर और कप्तान को यह नहीं पता कि उनके साथ मंच साझा कर रहा व्यक्ति कोर्ट में दर्ज संगीन अपराधों में नामजद है? या फिर यह जानकारी जानबूझकर अनदेखी की जा रही है? कहीं यह चुप्पी भी ‘फाइल सील’ वाली भाषा का विस्तार तो नहीं?

तिरंगा लहराओ, लेकिन आँखें बंद मत करो

रायपुर में “हर घर तिरंगा” की कार्यशाला आयोजित हुई — देशभक्ति और राष्ट्र सम्मान का आह्वान हुआ। लेकिन उसी मंच पर वही नाम दिखा, जिसके खिलाफ गंभीर आपराधिक प्रकरण दर्ज है। यही वह विडंबना है, जहाँ राष्ट्रध्वज की गरिमा और कानून की लाचारी एक ही फ्रेम में नजर आती है।क्या यह तिरंगे की भावना के साथ न्याय है? क्या कानून की किताबें नेताओं के लिए अलग छपती हैं ?

और अंत में 

यह सिर्फ एक महिला की ज़मीन का सवाल नहीं है। यह सवाल है; क्या न्याय व्यवस्था मंचों से डरने लगी है? क्या प्रशासन की चुप्पी सत्ता के इशारे पर सिल जाती है? जिस समाज में अदालत की पुष्टि से भी कोई अपराधी साबित नहीं होता जब तक वह मंच से उतर न जाए; वहाँ न्याय सिर्फ किताबों में बचता है। और यही सबसे बड़ा अपराध है।

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