भ्रष्टाचार की ढाल में धानापुरी रंगमंच की हत्या कर उसे दफना दिया गया..!
ग्राम धानापुरी में निर्माण के बीच ही रंगमंच की छत टपकी, वन विभाग की कार्यप्रणाली और गुणवत्ता पर उठे सवाल।

5 लाख रुपये की लागत से शुरू हुआ रंगमंच निर्माण पहली बारिश में ही सवालों की जद में आ गया है। घटिया सामग्री, अधूरी योजना और अधिकारियों की लापरवाही मिलकर एक ऐसी इमारत गढ़ रही है, जिसमें ‘विकास’ नहीं, भ्रष्टाचार की गूंज सुनाई देती है।
पहली बारिश में बह गया निर्माण का भरोसा
गुरूर (बालोद) hct : जिले के ग्राम धानापुरी में वन विभाग द्वारा वन विकास समिति की देखरेख में लगभग 5 लाख रुपये की लागत से एक रंगमंच का निर्माण किया जा रहा है। निर्माण अभी पूर्ण भी नहीं हुआ था कि पहली ही बारिश ने उसकी गुणवत्ता की पोल खोल दी। छत से पानी टपकने लगा, दीवारें सीलन पकड़ गईं और निर्माणाधीन भवन की हालत ऐसी हो गई मानो बरसात ने विभागीय कार्यशैली का पर्दाफाश करने का जिम्मा उठा लिया हो।
जब सवाल पूछा गया, जवाब नहीं — व्यवस्था की बेशर्मी मिली
इस संदर्भ में जब गुरूर वन परिक्षेत्र में पदस्थ रेंजर हेमलता उइके से बात की गई, तो उन्होंने जो उत्तर दिया, वह विभागीय लापरवाही से भी अधिक एक ऐसी मानसिकता को उजागर करता है जो जवाबदेही से ऊपर खुद को मानती है।
उनका उत्तर न केवल असंवेदनशील था बल्कि यह दर्शाता है कि विभागीय कार्यों में तकनीकी मानकों या गुणवत्ता नियंत्रण का कोई महत्व नहीं रखा गया है।
बातचीत में यह स्पष्ट हुआ कि निर्माण कार्य में न तो किसी अभियंता की राय ली गई, न ही किसी प्रकार की तकनीकी स्वीकृति की प्रक्रिया अपनाई गई। रेंजर महोदय स्वयं ही निर्माण कार्य की निगरानी, दिशा-निर्देशन और स्वीकृति का कार्य कर रही हैं। यही नहीं, जब गुणवत्ता पर सवाल उठाया गया, तो उनके उत्तर में कोई खेद या उत्तरदायित्व नहीं था, बल्कि एक प्रकार की चुनौती भरी उदासीनता झलक रही थी।
भ्रष्टाचार हुआ है, मगर ऐसा जैसे कि “हत्या के बाद लाश दफन कर दी गई”
यह टिप्पणी, जो पत्रकार द्वारा की गई, इस पूरे मामले का सबसे सटीक और सघन वर्णन है। यह मामला किसी सामान्य निर्माण में लापरवाही का नहीं, बल्कि योजनाबद्ध और निर्लज्ज तरीके से किए गए वित्तीय दुरुपयोग का प्रतीक बन चुका है।
5 लाख की योजना में निर्माण सामग्री की गुणवत्ता ऐसी है कि टपकती छतें और गीली दीवारें खुद गवाही दे रही हैं कि बजट का अधिकांश हिस्सा निर्माण के बजाय किसी और दिशा में प्रवाहित हुआ है। न जांच की प्रक्रिया अपनाई गई, न कोई पारदर्शिता रही और न ही भविष्य की जवाबदेही की चिंता की गई।
सवाल उठना ज़रूरी है, लेकिन सुनना कौन चाहता है?
यह पहली बार नहीं है जब ग्रामीण क्षेत्रों में बिना तकनीकी मार्गदर्शन के निर्माण कराए जा रहे हैं। परंतु जब निर्माण कार्य में सवाल उठाने पर अधिकारी इस प्रकार के उत्तर देने लगें, तो यह व्यवस्था के भीतर व्याप्त निरंकुशता की पुष्टि करता है।
यह एक प्रशासनिक मुद्दा नहीं, बल्कि लोकधन और जनभरोसे की हत्या का मामला है।
क्या जांच होगी या मामला दबा दिया जाएगा?
इस पूरे प्रकरण में अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या विभाग द्वारा इस निर्माण की गुणवत्ता की जांच की जाएगी? क्या रेंजर की जिम्मेदारी तय की जाएगी?
या यह मामला भी अन्य फाइलों की तरह दबा दिया जाएगा, और अगले साल फिर किसी गांव में इसी प्रकार का एक नया रंगमंच बनाकर भ्रष्टाचार की अगली किस्त निकाल ली जाएगी? यह केवल एक रंगमंच नहीं, एक प्रमाण है कि कैसे ग्रामीण योजनाओं में बिना पूछे, बिना जांचे, धन खर्च होता है और जनता को केवल टपकती छतें ही नसीब होती हैं।

