जाति प्रमाणपत्र की राजनीति’ में फंसी प्रतापपुर की विधायक !
हाईकोर्ट के आदेश पर भी खामोशी : ‘चार महीने से प्रशासन ‘विचाराधीन स्थिति’ में अटका, आदिवासी समाज ने दी आंदोलन की चेतावनी

सरगुजा hct : छत्तीसगढ़ के प्रतापपुर विधानसभा क्षेत्र में विधायक शकुंतला सिंह पोर्ते के जाति प्रमाणपत्र को लेकर नया विवाद खड़ा हो गया है। आरोप है कि यह प्रमाणपत्र वैधानिक दस्तावेजों के अभाव में जारी किया गया। यानी न पिता के दस्तावेज, न खुद के प्रमाण, पर जाति का प्रमाणपत्र तैयार। अब आदिवासी समाज ने इसे “कागज़ी आदिवासीकरण” का नमूना बताते हुए कार्रवाई की माँग तेज़ कर दी है।
प्रशासनिक जांच में ‘दस्तावेज गायब’
स्थानीय स्तर पर दिए गए आवेदन के बाद हुई प्रारंभिक जांच में चौंकाने वाला तथ्य सामने आया — प्रमाणपत्र जारी तो हुआ, पर आधार दस्तावेज कहीं मिले ही नहीं। अम्बिकापुर के अनुविभागीय अधिकारी और परियोजना कार्यालय दोनों ने यह लिखित रूप से बताया कि संबंधित कागज़ात उपलब्ध नहीं हैं। सवाल उठता है — जब दस्तावेज थे ही नहीं, तो प्रमाणपत्र किसने और किस भरोसे पर जारी किया?
हाईकोर्ट का आदेश, मगर कार्रवाई ठप
आदिवासी समाज ने मामला बिलासपुर हाईकोर्ट में उठाया, जहाँ 17 जून 2025 को न्यायालय ने जिला स्तरीय एवं उच्च स्तरीय छानबीन समिति को त्वरित कार्रवाई के निर्देश दिए थे। लेकिन चार महीने बीत गए, न प्रमाणपत्र रद्द हुआ, न जवाब आया। अदालत की गूंज थम गई और प्रशासन मौन साधे बैठा है। शायद ‘विचाराधीन’ वही पुराना औजार है, जिससे सियासी असुविधाएँ टाली जाती हैं।
विधायक की अनुपस्थिति पर सवाल
जिला स्तरीय सत्यापन समिति ने 28 अगस्त, 15 और 29 सितंबर को सुनवाई की तारीखें तय कीं। विधायक को दस्तावेज़ प्रस्तुत करने बुलाया गया, लेकिन वे उपस्थित नहीं हुईं। समिति के रिकॉर्ड में ‘अनुपस्थिति’ दर्ज है, जबकि समाज इसे ‘रणनीतिक चुप्पी’ कह रहा है। सवाल यही कि यदि प्रमाणपत्र सही है, तो दस्तावेज़ पेश करने में हिचक क्यों?
“फर्जी आदिवासी बनकर चुनाव लड़ने” का आरोप
आदिवासी समुदाय ने स्पष्ट कहा है कि आरक्षित सीट पर इस तरह चुनाव लड़ना संविधान और समुदाय दोनों के साथ धोखा है। उनका कहना है कि यह सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे आदिवासी समाज की गरिमा पर चोट है। मंचों पर गूंजते भाषण और पोस्टरों में छपी संवेदनशीलता के बीच अब जनता पूछ रही है — क्या सत्ता ‘कागज़ी जाति’ से भी सुरक्षित है?
आदिवासी समाज का अल्टीमेटम
समाज ने प्रशासन को सात दिन का अल्टीमेटम दिया है। तय अवधि में यदि प्रमाणपत्र निरस्त नहीं हुआ, तो वे अनिश्चितकालीन आंदोलन छेड़ेंगे। प्रतिनिधियों ने स्पष्ट कहा – “अगर स्थिति बिगड़ी, तो ज़िम्मेदारी हमारी नहीं, प्रशासन की होगी।” प्रशासन की नींद अभी भी आरामदेह है, मानो अदालत का आदेश महज़ सलाह हो।
जन प्रतिक्रिया और राजनीतिक असर
स्थानीय स्तर पर यह विवाद सिर्फ जाति प्रमाणपत्र तक सीमित नहीं रहा। लोग इसे आदिवासी अस्मिता से जोड़कर देख रहे हैं। संगठनों का कहना है — “यह मामला अस्तित्व का है, न कि औपचारिक कागज़ी जांच का।” वहीं विधायक पक्ष अब तक चुप है, और यही चुप्पी सबसे ऊँची आवाज़ बन गई है।
जिला समिति की अगली बैठक निर्णायक मानी जा रही है। अगर प्रमाणपत्र निरस्त होता है, तो इसकी सियासी गूँज विधानसभा तक जाएगी। लेकिन अगर वैध ठहरा दिया गया, तो अदालत की अगली सीढ़ी तय है।
कहने को तो न्याय की प्रक्रिया जारी है, पर असल सवाल वही — क्या नियम सिर्फ आम जनता के लिए बने हैं, या सत्ता के लिए उनके अपवाद भी?




