Welcome to CRIME TIME .... News That Value...

communique

प्रतिरोध की इबारत की नयी लिपि और उसके उजले हरूफ

बादल सरोज

नागरिकता क़ानून और उसकी आड़ में छुपी एनआरसी के खिलाफ देश भर में मचे बबाल और स्वतःस्फूर्त उभारों तथा जेएनयू से लेकर जामिया होते हुए अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के छात्र आंदोलनों से सामने आये उजास के अनेक पहलू हैं; यह युवतर है, यह किसी भी प्रकार की संकीर्णता से ऊपर और इतर है, यह सर्वसमावेशी है, प्रस्तुति और अभिव्यक्ति दोनों मामलों में नूतन है, मौलिक है। मगर इन सबसे ज्यादा चमकदार है इस प्रतिरोध की इबारत के हरूफों – शब्दों – का उजलापन। महिलाओं की असाधारण जिद के साथ की जा रही इसकी अगुआई, बढ़ी चढ़ी भागीदारी और उसमे उजागर हो रहे संकल्प हिन्दुस्तानी अवाम के प्रतिरोध की नयी लिपि – नयी रस्मुलख़त – है।

हालांकि कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए तब भी दोहराना आवश्यक और सामयिक है कि जुल्म और अन्याय के खिलाफ लड़ाई में महिलायें कोई पहली बार नहीं उतरी हैं। बदलाव की हर लड़ाई में औरतों ने बेमिसाल भूमिकाएं निबाही हैं; अपने योगदान से दुनिया भर में इतिहास रचे हैं मगर इतिहास लिखने के काम से उन्हें अलग रखने की पितृसत्ताक “चतुराई” ने इन सबको इतिहास में दर्ज नहीं होने दिया। इसके बावजूद हुआ यह कि बजाय इस बेरुखी से पस्तहिम्मत होने के, इस इतिहासी तिरस्कार को पल्लू से बाँधने के, उन्होंने इसे गर्द की तरह झाड़कर नए मंसूबे बांधे और उन्हें साकार करने की अगली कोशिशों के लिए ताकत जुटाने की दिशा में आगे बढ़ गयीं। सीएए और एनआरसी के खिलाफ और सार्वजनिक शिक्षा तथा लोकतंत्र की हिफाजत के लिए उनका हिम्मत और अक़ीदे के साथ मैदान में उतरना अब तक के संघर्षों का , हाल के दौर का सबसे जाहिर उजागर प्रदर्शन है।

दिल्ली के शाहीन बाग़ से लेकर भोपाल के इक़बाल मैदान में मूर्तिकार जे स्वामीनाथन की बनायी शाहीन के स्तम्भ के ठीक नीचे महीने भर से जारी प्रतिरोध देश के अनेक प्रदेशों में असहमति जताने के इसी तरह के न जाने कितने आन्दोलनों के लिए मिसाल और प्रेरणा बना है। कड़कड़ाती ठण्ड की रातों में भी पूरे साहस के साथ डटी हुयी है औरतें, अपनी तादाद लगातार बढ़ाती हुयी। जेएनयू में दिलेरी के साथ संघी गुंडावाहिनी और संघी कुलपति की अहमकाना अहमन्यता के खिलाफ जेएनयूएसयू की अध्यक्षा आइशे घोष अपनी जामिया और अलीगढ़ की साथिनों-सहयोगिनियों के साथ “बन्दूकों वाले डरते हैं एक निहत्थी लड़की से” के आइकॉन के रूप में देश भर के प्रतिरोध की निडरता का पर्याय और प्रतीक बनकर सामने आयी है। हालांकि वे अकेली नहीं है – उन जैसी अनेक हैं।

देश भर की प्रतिरोध कार्यवाहियों की अगुआ बनी औरतें, बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो, आम महिलायें हैं; उनमे गृहणियां हैं, शिक्षिका, डॉक्टर, नौकरीपेशा प्रोफेशनल्स हैं। कालेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ रही लड़कियों से लेकर कहीं न पढ़ पा रही घरेलू कामकाज में जुटी स्त्रियां और लडकियां तक हैं। इनमे से ज्यादातर वे हैं जो जिंदगी में कभी किसी जलसे या सभा में नहीं बोलीं – मगर अब बोल रही हैं। एकदम अलग ही अंदाज और तेवर के साथ खतरों की निशानदेही भर नहीं कर रहीं बल्कि संभावित परिणामो और उनमे निहित आशंकाओं को इतनी गहराई और सफाई से रख रही हैं कि जिन्हे सुनकर मुंह से अपने आप निकलता है कि “अरे, ऐसा भी है। ये बात यूँ भी देखी कही जा सकती है।” बिलाशक वे आंदोलन की नयी वर्तनी गढ़ रही हैं। ऐसी वर्तनी जिसमे उग्रता और हिंसा, उकसावे और उद्वेग की गुंजाइश सिरे से नहीं है – अलबत्ता अपने ऊपर की जा रही हिंसा के विरुध्द असाधारण दृढ़ता बहुत सारी है।

अपनी परवरिश और अलगाव दोनों के मेल से हासिल तजुर्बों के चलते वे विराटस्वरूपा मुश्किलों के सामने मुकाबले की कतारों की व्यापकतमता के महत्त्व को औरों से ज्यादा शिद्दत से जानती हैं और ठीक इसीलिए उसे हासिल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहतीं। हुक्मरानों – मोदी के जिसका हिन्दू परम्पराओं या जीवन से कोई रिश्ता नहीं है उस हिन्दुत्वी गिरोह – की दिनोंदिन बढ़ती खीज, उनकी हुड़दंगी ब्रिगेड की बढ़ती गाली-गलौज इस उभार और तर्कसंगत तरीके से लगातार विकसित हो रहे विमर्श से उपजा डर और भय है। हुक्मरान दंग है कि उनके सारे प्रयासों और धतकर्मों के बावजूद “जिन पै तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे” ; जिन महिलाओ और युवाओं को उन्होंने अपने झूठे नैरेटिव का वाहक बनाया था अब वे ही उसके खिलाफ सबसे जोर की आवाज बनकर सामने आ रहे हैं।

यह जद्दोजहद, ये उभार, ये जागरण सिर्फ इन्ही मुद्दों तक सीमित नहीं है, नहीं रहेंगे, बल्कि चाहकर भी नहीं रह सकते। इस तरह की हर हलचल समुद्र मंथन की तरह होती है और जाने अनजाने कई ऐसे दायरों और बंदिशों की सींवन उधेड़ कर रख देती है जिनके बारे में सोचा भी नहीं गया होता, देखने में जिनका इस जगार के मुद्दों से सीधा ताल्लुक भी नहीं देखा माना जाता। इतिहास में दर्ज हर बड़ी उथलपुथल के साथ यह हुआ है। लोकतांत्रिक अधिकार और मानवीय व्यवहार के लिए जिद – एसर्शन – सिर्फ दिखावटी अधिकारों को हासिल या उनकी हिफाजत करने तक नहीं रुकता, वह आगे जाता है। इस लिहाज से इन आन्दोलनों में महिलाओं की बढ़ी चढ़ी हिस्सेदारी और उनकी नेतृत्वकारी भूमिका सिर्फ तात्कालिक हमलों के प्रतिरोध नहीं है – वे जड़तायें भी तोड़ रही है। पोंगापंथी-कठमुल्लावादी मान्यताओं पर चोट कर रही हैं। समाज के कुहासे को धुंधला कर रही है। पर्दा और घूंघट, स्त्रियों का आभूषण बताकर उनकी बेड़ियाँ बना दी गयी मान्यताओं और आग्रहों को पार्श्व में धकेल रही हैं। प्रतिरोध एक साथ दो नए काम एक साथ कर रहा है। एक ; उन्हें एक नए रूप में संस्कारित कर रहा है और दो ; उनकी शानदार कारगुजारियों के जरिये समाज का शऊर और सलीका सुधार रहा है। शाहीन बाग़ और ऐसे आंदोलनों में देशभर में सडकों पर उतरी औरतें और जेएनयू-जामिया की लडकियां तथा उनसे हौंसला पाकर देश के 300 से अधिक जिलों में सड़कों पर उमड़ता घुमड़ता जनसमूह एक नए भविष्य की तामीर के लिए जरूरी रोशनी जुटा रहा है। धर्म – सम्प्रदाय – रूढ़ियों और सत्ता के वर्चस्व को चुनौती देते ये हुजूम जाने अनजाने पितृसत्तात्मकता की मोटी चमड़ी को कुरेद रहे है। सदियों पुरानी बेड़ियों पर जोरदार प्रहार कर रहे हैं और यह कोई मामूली बात नहीं है।

इसे अगर हाल में हुई 8 जनवरी की कामयाब देशव्यापी आम हड़ताल से जोड़ कर देखा पढ़ा जाए तो उजास की चमक और मानीखेज हो जाती है। जाहिर तौर पर मोदी सरकार की विनाशकारी नीतियों के विरूद्द हुयी इस हड़ताल – जिसमे किसानो ने भी अपनी मांगें लेकर ग्रामीण भारत बंद के नारे के साथ भाग लिया था और कुल जमा हड़तालियों की तादाद 25 करोड़ से अधिक रही – की खासियत थी इसमें महिलाओं की कमाल की बढ़ी चढ़ी हिस्सेदारी। वे हर जगह आगे की कतारों में थीं – औद्योगिक हड़तालों के बाद निकली रैलियों में आगे बढकर नारे लगाती, कई जगहों पर तो पुरुषों की तादाद से भी ज्यादा संख्या में अपनी जीवंत भागीदारी दर्ज करातीं, अगुआई करती । पीछे वे ग्रामीण भारत बंद की कार्यवाहियों में भी नहीं थी। लैंगिकता के मामले में वर्गसंघर्ष की पितृसत्ताक अभिशप्तता पर एक बड़ा प्रहार था ; 8 जनवरी के समावेशों की वे छवियाँ जिनमे महिलायें अपने आँचल को परचम बनाये छाई हुयी नजर आ रही हैं।

खतरे और चुनौतियां जितनी बड़ी होती हैं उनमे उतनी ही अधिक संभावनाएं भी निहित होती हैं। हाल का समय समूचे भारत पर कालिमा थोप देने के नापाक इरादों वाली खल-मण्डली की तेज से तेजतर हो रही हरकतों का ही समय नहीं है वह इस अंधियार को उलट देने की संभावनाओं से भरे अनेक प्रकाश पुंजों के खुलने और फैलने का भी समय है। हल निकलेगा, जितना गहरा खोदेंगे जल निकलेगा।

(बादल सरोज अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव और ‘लोकजतन’ पाक्षिक के संपादक हैं।)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button

You cannot copy content of this page