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इंदौर का हादसा और उसके आगे : बादल सरोज।

24 जनवरी की शाम इंदौर में सीपीआई (एम) के वरिष्ठ साथी, दलित शोषण मुक्ति मंच के नेता रमेश प्रजापत ने आत्मदाह कर लिया। अस्पताल में इलाज के दौरान 26 जनवरी की शाम उनका निधन हो गया। सीसीटीवी की जांच के बाद पुलिस ने बताया कि वे सिटी बस से इंदौर के एक प्रमुख केंद्र गीता भवन चौराहे पर उतरकर बैठे, अपनी जेब से कुछ पर्चे निकालकर आसपास के लोगों को बाँटे, कुछ हवा में फेंके, बाकी करीब 50 पर्चे एक पॉलीथिन में रखे, उन्हें अपने पास थोड़ी सी दूरी पर सुरक्षित रखा और खुद पर कैरोसीन छिड़क कर आग लगा ली। अस्पताल में भर्ती कराये जाने तक वे 100 फीसद जल चुके थे।

जिन पर्चों को बाँटते हुए उन्होंने आत्मदाह किया वे “धर्मनिरपेक्ष संविधान की रक्षा” की खुद उनके द्वारा लिखी गयी अपील थी, जिसमे उन्होंने सीएए, एनआरसी के बारे में आगाह किया था। जेएनयू और जामिया के छात्रों की शिक्षा बचाने की लड़ाई का उल्लेख किया, नोटबन्दी सहित मोदी सरकार की गलत नीतियों के विनाशकारी परिणामो को गिनाया था और नागरिकता क़ानून की आड़ में भाजपा सरकार के असली इरादों को प्रस्तुत किया था ।

कामरेड रमेश प्रजापति – इंदौर के लोगों में वे रमेश टेलर के नाम से लोकप्रिय थे – द्वारा की गई आत्मदाह की घटना दुःखद एवं अस्वीकार्य कार्यवाही है। अतिरिक्त रूप से अस्वीकार्य और एकदम अनअपेक्षित इसलिए कि वे उस पार्टी के सदस्य थे जिसका जनता की ताकत में विश्वास असंदिग्ध है। वह कैसी भी विपरीत स्थितियां क्यों न हो जनता के संघर्षों को उनसे उबरने का एकमात्र रास्ता मानती है। बदतर से बदतर हालात में भी संघर्ष से पलायन नहीं करती और आत्महत्या को पलायन मानती है। वे उस पार्टी के सदस्य थे जो आत्मदाह – आत्महत्या जैसे कदमों को प्रोत्साहित नहीं करती है। जो मानती है कि जनता को लामबंद करके ही शासक वर्गों की जनविरोधी नीतियों को परास्त किया जा सकता है। इस पार्टी अविभाजित सीपीआई और उसके बाद से – सीपीआई (एम) का इतिहास देश और जनता के लिए संघर्षों में मुकाबले और उन मुकाबलों में कुर्बानी और आत्मोत्सर्ग का रहा है । उसने अपने गठन से लेकर आज तक, आजादी से पूर्व और बाद में शासक वर्गों के दमन हमले सहे , पूरी शक्ति के साथ दमन और तानाशाही का मुकाबला किया । यही गौरवशाली परम्परा है जो आज तक निरन्तरित है और दावे के साथ कहा जा सकता है कि तब तक जारी रहेगी जब तक मनुष्यता हर तरह की बेड़ी से पूरी तरह मुक्त नहीं होती।

किन्तु – और यह किन्तु ऊपर लिखी बात के बाद का है – कामरेड रमेश टेलर से जुड़े इस हादसे ने देश के समसामयिक राजनीतिक हालातों और उनके इस देश के नागरिकों पर पड़ रहे मनोवैज्ञानिक प्रभावों के एक अंधियारे पहलू को मुखर और रोशन किया है। प्रतिरोध के लिए चुना गया उनका यह असाधारण, किन्तु अस्वीकार्य, तरीका पूरे देश की जनता में व्याप्त असामान्य बेचैनी और चिंता को सामने लाता है । यह इस बात की अभिव्यक्ति है कि भाजपा और आरएसएस द्वारा देश के संविधान और भारत की अवधारणा की बुनियाद पर किये जा रहे हमले से देश के संवेदनशील नागरिक कितने विचलित और उद्वेलित हैं । यह बेचैनी तब और बढ़ जाती है जब वे – जिनकी सारी परवरिश कमोबेश लोकतंत्र की हिफाजत के लिए लड़ते हुए, सामाजिक वातावरण को लोकतांत्रिक बनाते हुए हुयी है – वे अब उन परम्पराओं और तौर तरीकों के पूरी तरह गायब हो जाने की स्थिति को अपनी आँखों के सामने गुजरता हुआ देखते हैं। वे देखते हैं कि आजादी के बाद के सबसे जबरदस्त, व्यापक और देशव्यापी विरोध के बावजूद सरकार सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर जनमत को कोई तवज्जोह नहीं दे रही। खुद प्रधानमंत्री और उनके दो नम्बरी गृह मंत्री सहित सरकार में बैठे लोग असहमति की पूर्णतः लोकतांत्रिक तथा संविधानसम्मत अभिव्यक्ति का सम्मान करने की बजाय उसे तानाशाही की असभ्य भाषा में गरिया और दुत्कार रहे हैं। बातचीत और संवाद की शुरुआत करने की बजाय प्रशासनिक बल प्रयोग का रास्ता चुन रहे हैं। उत्तरप्रदेश सहित असम और देश भर में बिना किसी लाज शर्म के दमन का भगवा बुलडोजर चला रहे हैं। संवाद तक न करने की सरकार की अलोकतांत्रिक जिद, विधि और कानूनसम्मत सारी परम्पराओं को त्याग कर आंदोलनकारियों को कुचलने की तानाशाहीपूर्ण कार्यवाहियों की दिशा में बढ़ रही है। यह स्थिति लोगो को हताश और व्यथित कर रही हैं । उन्हें सबसे अधिक स्तब्ध कर रहा है संसदीय बहुमत का संविधान पर चढ़ बैठना और उसे ध्वस्त करने के लिए हर तरह की कुदालियों और फावड़ों को काम पर लगा देना।

यह वह बेचैनी और हद दर्जे की व्याकुलता है जो – सिर्फ अल्पसंख्यकों की ही नहीं – समस्त भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से की चिंता बनी हुयी है।

सत्ता, जो इन दिनों कारपोरेट और हिंदुत्व के सख्त नियंत्रण वाली सत्ता है, के साथ लोकतांत्रिक स्पेस की घुटन बढ़ाने में पूंजीवादी लोकतंत्र के बाकी अवयवों का ढह जाना एक अतिरिक्त चिंता का कारण बना हुआ है। ग्राम्सी जिसे वर्चस्व कायम करने की पूरक सत्ता कहते थे ; उसकी संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता यहाँ तक कि भारत की अवधारणा पर किये जा रहे खुल्लमखुल्ला हमलों में, परोक्ष अपरोक्ष सहमति ने इसे और बढ़ा दिया है। यह सिर्फ तटस्थ या सहमत न्यायव्यवस्था या पुंछल्ला भाट मीडिया में ही नहीं दिखता। यह उस कथित सिविल सोसायटी के एक बड़े हिस्से के रवैय्ये में भी नजर आता है जिसने अब तक इस संविधान और लोकतंत्र का फ़ायदा उठाया था, समय समय पर इसे अधिनायकवादी हमलों से बचाया था। आज के दौर में हिंदी भाषी राज्यों में खासतौर पर इंदौर और आमतौर से मालवा उस अधिनायकवादी वर्चस्व – हेजेमोनी – का संभवतः सबसे संक्रामक केंद्र बनकर उभरा है जो सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र ही नहीं सामाजिक लोकतंत्र को भी हड़प लेता है। कामरेड रमेश प्रजापत की मौत के बाद संघ परिवार का पूरी तरह गिरोहबंद होकर रमेश जी के अराजनीतिक परिजनों को घेर लेना और उनके द्वारा किये गए प्रतिरोध के मुद्दे को धुंधला कर उसे उस पारिवारिक तनाव का परिणाम बताने की कोशिश करना, जो कभी था ही नहीं, इसी आक्रामक हेजेमनी का विद्रूप उदाहरण है। इसका एक और आयाम है जनता की अभिव्यक्ति पर बंदिश है। सभाओं, जलसों, जलूसों, आन्दोलनों पर प्रतिबन्ध इस घुटन को और बढ़ाता। इंदौर में 2013 से लगातार लगी हुयी धारा 144 इसका एक उदाहरण है। यह धारा 144 जनमुद्दों के वक़्त ही दिखाई देती है – साम्प्रदायिक संगठनों की धींगामुश्ती के समय नजर नहीं आती।

ठीक 71 वे गणतंत्र दिवस, भारत के संविधान के प्रभावशील होने के दिन हुयी रमेश टेलर की मृत्यु, जिसके लिए अपनाया गया तरीका पूरी तरह अस्वीकार्य और त्याज्य है, खुद भारत के संविधान और गणतंत्र दोनों के लिए बड़े प्रश्न छोड़कर गयी है। सभ्य समाज इनकी अनदेखी अपनी अब तक की हासिल सभ्यता को गंवाने की जोखिम उठाकर ही कर सकता है। जो देश भर की जनता के इतने भारी लोकतांत्रिक प्रतिरोधों तक का संज्ञान नहीं लेतीं वे और कुछ भी हों लोकतंत्र पसंद सरकारें तो पक्के से नहीं होती। जनता के विराट बहुमत के प्रति अवमानना और अवज्ञा, ढिठाई और निर्लज्जता दिखाने वाली हुकूमतें इतिहास में हमेशा फासीवादी रुझानों की सरकारें रही हैं। मौजूदा मोदी निज़ाम भी तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है। नतीजे में यदि प्रतिरोध बढ़ रहे हैं तो जनता के बड़े हिस्से में बेचैनी, व्याकुलता और अवसाद भी बढ़ रहा है।

भारत् भर में 400 के करीब स्थानों पर चल रहे जन-प्रतिरोध और सबसे बढ़कर केरल में 70 लाख भारतीयों ने 620 किलोमीटर तक एक पंक्ति में खड़े होकर यह साबित कर दिया है कि इसका मुकाबला जरूरी ही नहीं संभव भी है। फासीवादी रुझानों की सबसे विषाक्त प्रतीक भाजपा के दमन और अत्याचारों के बावजूद त्रिपुरा की जनता ने भी 26 जनवरी को मानव श्रृंखला बनाकर एक बार और पुष्टि की है कि अंधेरे को तीव्रतम काल में भी उजाले सलामत रखे जा सकते हैं।

इंदौर के हादसे के दिन हुयी इन देशव्यापी कार्यवाहियों ने साफ़ कर दिया है यह समय जनता के सभी हिस्सों के साथ मिलकर सीएए, एनआरसी, एनपीआर के खिलाफ और संविधान व लोकतंत्र की हिफाजत और भारतीय जनता की जिंदगी को दिनो-दिन मोटे हो रहे कारपोरेटों से बचाने के लिए लड़ाई को जारी रखने, तेज करने का समय है । रास्ता यही है इसके सिवा और कुछ भी नहीं है।

बादल सरोज

*लेखक अ.भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव और पाक्षिक लोकजतन के संपादक हैं।

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