आस्था का मंच और ‘आरोपों का गहराता साया’…!
जहाँ न्यायिक प्रक्रिया जारी हो, वहाँ ‘सार्वजनिक शिरकत’ क्या संकेत देती है...?

सरगुजा में नाग पंचमी आयोजन के मंच पर दिखी श्रद्धा और संकोच।
जहाँ शंखनाद होना था, वहाँ सवाल गूंजे –
क्या न्यायिक प्रक्रिया के बीच ऐसे चेहरे सार्वजनिक आयोजनों में ‘सामान्य’ हैं ?
अंबिकापुर /सरगुजा hct : छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में इस वर्ष नाग पंचमी का उत्सव पहले की तरह धार्मिक उत्साह के साथ मनाया गया। हालाँकि, इस बार आयोजन के मंच पर ऐसी एक उपस्थिति ने जनता को चौंकाया, जिसकी चर्चा लंबे समय से एक बहुचर्चित भूमि विवाद को लेकर न्यायालयीन प्रक्रिया में चल रही है।
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इसी बीच, जब आयोजन की तस्वीरें सामने आईं, तो ज़िले के नागरिकों के मन में कुछ बुनियादी सवाल उठने लगे। कारण यह कि मंच पर बैठे चेहरों में प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ वही व्यक्ति नजर आया, जिसके विरुद्ध न्यायालय के निर्देश पर प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है।
मामला कहाँ से जुड़ा है..?
यह विवाद एक अशिक्षित विधवा महिला की पैतृक ज़मीन को लेकर है। पीड़िता का आरोप है कि कानूनी मदद के नाम पर कुछ लोगों ने उनसे अनुचित तरीके से दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवा लिए, और फिर ज़मीन की रजिस्ट्री तक कर दी गई।
इस दौरान, अनुबंधों की राशि, भुगतान की प्रक्रिया और जमीन का वास्तविक कब्जा — सब कुछ सवालों के घेरे में रहा। पीड़िता ने वर्षों तक पुलिस, एसपी और आईजी कार्यालयों के चक्कर लगाए, किंतु कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई…!
अंततः, मामला न्यायालय पहुँचा। 2025 में सीजेएम कोर्ट ने इस मामले को गंभीर मानते हुए धारा 420, 467, 468, 471, 120बी और 34 के तहत अपराध पंजीबद्ध करने का आदेश दिया। इसके फलस्वरूप, 19 जुलाई 2025 को कोतवाली अंबिकापुर में प्राथमिकी क्रमांक 482/25 दर्ज की गई।
संवेदनशीलता या संकोच..?
एफआईआर दर्ज होने के कुछ ही समय बाद, पुलिस ने मामले को ‘Sensitive‘ श्रेणी में डालते हुए फाइल को सील कर दिया ! इसके बावजूद, उन्हीं नामों में से एक की सार्वजनिक उपस्थिति, और वह भी सरकारी आयोजन के मंच पर, अब नागरिकों की नजर में असहजता उत्पन्न कर रही है।
दूसरी ओर, मंच पर उपस्थित अधिकारियों में आईजी सरगुजा और कलेक्टर शामिल थे। ऐसे में यह जानना आवश्यक हो गया है कि – क्या प्रशासन को मंच साझा करने से पहले प्रासंगिक जानकारी प्राप्त होती है? और यदि होती है, तो क्या उस पर कोई संवैधानिक विचार किया जाता है?
अब उठ रहे हैं सवाल –
- जब एक मामला न्यायालय की निगरानी में हो, तो क्या प्रशासनिक मंचों पर संयम अपेक्षित नहीं होता?
- क्या यह स्थिति ‘संवेदनशीलता’ से अधिक संवेदनहीनता की ओर संकेत नहीं करती?
- और सबसे अहम — क्या पारदर्शिता की मांग अब सिर्फ कागज़ों तक सीमित रह गई है?
जनता देख रही है… पर किसे ?
इस दौरान, आयोजन तो समाप्त हो गया, फूल भी चढ़े, आरती भी हुई ! लेकिन नागरिकों की नजरें अब आयोजन से अधिक उस मंच पर टिक गई हैं,जहाँ श्रद्धा के साथ-साथ एक अदृश्य ‘साया’ भी दिखा।
कई लोगों का कहना है कि यह कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं, बल्कि जन-संवेदनाओं से जुड़ा मामला है। क्योंकि जब कानून प्रक्रिया में होता है, तब उससे जुड़े नामों की सार्वजनिक उपस्थिति विश्वास की बुनियाद पर असर डाल सकती है।
अंतिम बात –
- जब एक आम नागरिक पर एफआईआर होती है, तो पुलिस बुलाने में देर नहीं लगती…
- फिर मंच पर बैठे इन चेहरों के लिए इतना ‘संवेदनशील‘ व्यवहार क्यों?
- क्या न्याय की प्रक्रिया अब जनभावना से अलग दिशा में चल रही है?
- जब आस्था और न्याय एक मंच पर हों, तो ‘साया’ सिर्फ सांकेतिक नहीं होता – वह जनता की स्मृति में उतर जाता है।
अब प्रश्न यह नहीं कि मंच पर कौन था, बल्कि यह है कि प्रशासन वहाँ क्या कर रहा था? और फाइलें तो ‘सील’ कर दी गईं, लेकिन जनता की नजरें अब और तेज़ हो गई हैं..!
