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19 मार्च : आर.एस.पी.आई. (एम.एल.) स्थापना दिवस।

रायपुर। 19 मार्च 1940 को राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा रामगढ (अब झारखन्ड) में बुलाये गये समझौता विरोधी सम्मेलन के पन्डाल में देश भर से जुटे मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों ने –भारत की क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी (मार्क्सवादी -लेनिनवादी) REVOLUTIONARY SOCIALIST PARTY OF INDIA (,MARXIST–LANINIST) R.S.P.I. (ML) का गठन किया था औऱ राष्ट्रीय जनक्रान्ति द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड फेंकने के साथ ही सर्वहारा क्रान्ति द्वारा पूँजी की वर्ग सत्ता को मिटा कर सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व कायम करना अपना लक्ष्य -उद्देश्य घोषित किया था। उल्लेेखनीय है कि इस समझौता विरोधी सम्मेलन के ठीक विपरीत उद्देश्य को लेकर ठीक उसी समय रामगढ में ही गान्धी जी के नेतृत्व में समझौता सम्मेलन भी हो रहा था जिसमें स्तालिनपंथी कम्युनिस्ट पार्टी तथा लोहिया-जयप्रकाश की कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का भी सहयोग था ।
वास्तव में यह द्वितीय साम्राज्यवादी विश्व महायुद्ध का दौर था। विश्व के पूँजीवादी राजनीतिक मंच पर 22अगस्त 1939 को दुनिया भर के मजदूूरों के घोषित शत्रु फासिस्ट हिटलर औऱ विश्व मजदूरों के कथित मसीहा स्तालिन के बीच मित्रता पूर्ण सन्धि हुई थी। इस मैत्री सन्धि के एक सप्ताह बाद ही 2 सितम्बर 1939 को फासिस्ट जर्मन फौजों ने पोलैन्ड पर हमला कर दिया। फिर रूस की फौजों ने भी हमला कर उसे आधा – आधा बांट लिया। जर्मन फौजों द्वारा पोलैन्ड पर हमला करते ही 3 सितम्बर 1939 को ब्रिटेन औऱ फ्रान्स ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी औऱ विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया। हिटलर औऱ स्तालिन का यह मधुर मिलन 22 जून 1941 तक कायम रहा। टूटा तब, जब 22 जून को हिटलर की फौजों ने सोवियत रूस पर ही हमला कर दिया। जब तक हिटलर स्तालिन मैत्री कायम रही औऱ ब्रिटेन शत्रु रहा, तब तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए वह विश्व युद्ध साम्राज्यवादी विश्व महायुद्ध था; तब तक वह भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध जन क्रान्ति का बाजा बजा रही थी; किन्तु 22 जून 41 को जैसे ही हिटलर की फौजों ने रुस पर हमला किया औऱ दोस्ती दुश्मनी में बदली; फासिस्ट हिटलर शत्रु बन गया। रूस ने ब्रिटेन के गले में बाहें डाल दीं औऱ स्टालिन चर्चिल की गोद में जा बैठे। फिर क्या था? भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए एक ही रात में साम्राज्यवादी युद्ध बदल कर जन युद्ध हो गया। वह अब साम्राज्यवादी ब्रिटेन की मदद औऱ सुरक्षा में कमर कस कर जा खडी हुई। ब्रिटिश साम्राज्यवादी गुलामी के विरुद्ध चलने वाले भारतीय क्रान्तिकारी स्वाधीनता संग्राम में अवरोधक बन गयी। यह था स्टालिनवाद का चरित्र। अनुशीलन समिति के मूर्धन्य नेता तथा आर .एस .पी .आई.(एम.एल.) के संस्थापकों में से एक महराज त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती ने तभी अपनी पुस्तक “जेल में तीस बरस” में लिखा कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के साथ विश्वासघात का ऐसा उदाहरण दुनिया में मिलना मुश्किल है। व्यंग्य यह कि ब्रिटिश साम्राज्यशाही की गोद में बैठै इन स्तालिनवादियों को उद्भट राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी नेता जी सुभाष को जापानी एजेंट कहने में जरा भी शरम नहीं आयी। यह भी ध्यान रहे, द्वितीय साम्राज्यवादी विश्व महायुद्ध प्रारम्भ होते ही भारतीय पूँजीपति वर्ग औऱ उसकी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाल कर युद्धजन्य परिस्थितियों से अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का अवसर प्राप्त करने के प्रयासों में लग गयी औऱ गान्धी जी के नेतृत्व में ब्रिटिश साम्राज्यशाहों पर समझौता करने का दबाव डालने लगी।
रामगढ समझौता सम्मेलन इसी दबाव का एक हिस्सा था। जब कि नेताजी सुभाष तथा अनुशीलन समिति के क्रान्तिकारी इसे ब्रिटिश गुलामी की जंजीर तोडने का अनुकूल अवसर समझ रहे थे। यही कारण था कि एक ही समय औऱ एक ही स्थान पर परस्पर विरोधी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु दो -दो सम्मेलन बुलाये गये। ठीक इन्हीं भौतिक वस्तु परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीय वर्ग-सहयोगवादी स्तालिनवादी कम्युनिस्ट आन्दोलन औऱ सुधारवादी पूँजीवादी सोसल डेमोक्रेटिक आन्दोलनो के विरुद्ध उसके विकल्प के रूप में विप्लवी मार्क्सवाद–लेनिनवाद को अपना दार्शनिक–सैद्धांतिक आधार घोषित करते हुए आर.एस .पी.आई. (एम एल )का गठन किया गया औऱ स्वनामधन्य क्रान्तिकारी योगेश चन्द्र चटर्जी को इसका प्रथम महामंत्री बनाया गया। महराज त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती , प्रतुल गांगुली, रवि मोहन सेन, रमेश आचार्य, केशव प्रसाद शर्मा,बसावन सिंह, योगेन्द्र शुक्ल औऱ सहस्त्रबुद्धे की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनायी गयी। वस्तुत: आर.एस.पी .आई. (एम एल) अनुशीलन समिति , एच आर ए, ,एच .एस .आर . ए. को समाहित करती हुई उसकी सर्वोच्च विकसित कडी के रूप में गठित हुई।
यह सच है, शहीदों का लक्ष्य,उद्देश्य अधूरा रह गया। पूँजीवादी राजनीतिक षडयन्त्रों के तहत देश का साम्प्रदायिक विभाजन हुआ औऱ राष्ट्रीय जन क्रान्ति की पीठ में छूरा भोंक कर समझौते द्वारा सत्ता का हस्तान्तरण कर लिया गया । ब्रिटिश साम्राज्यशाहों की गुलामी से मुक्ति तो अवश्य मिली किन्तु पूँजी की गुलामी कायम रही, आज भी कायम है। अत:एव क्रान्तिकारी आन्दोलन की कोख से जन्मी अमर शहीदों के शहादत की धरोहर संजोये आर.एस.पीआई.(एम एल) आज भी अपने मानवीय कर्तब्य पथ पर अग्रसर हैं औऱ सभी मानववादी तत्वों से इस काफिले में जुडने बढने का आह्वान कर रही है।
इन्कलाब जिन्दाबाद।

*कृष्ण कुमार त्रिपाठी।

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