गरियाबंद : नौकरशाही का डायमंड बेल्ट और अफसरों की “बिरला” व्हाइट चमक
तबादला आदेश कागज़ों में, रसूख और जुगाड़ से अफसर वहीं के वहीं...!

छत्तीसगढ़ प्रदेश में नौकरशाही किस कदर व्याप्त है इसका प्रमाण देते देते संभवतः कलमकारों के कलम की स्याही कम पड़ जाए मगर प्रमाण कम नहीं पड़ेंगे। उदाहरण के तौर पर प्रदेश के गरियाबंद जिले को ही लें तो यहां के मैनपुर तहसील में स्थित पायलीखंड-बेहराडीह हीरे के बेल्ट में जितना हीरा नहीं होगा, आज की तारीख में उतने रिश्वतखोर; जिला घोषित होने के समय से पदस्थ होकर आज तलक “बिरला” व्हाइट की चमक की तरह बरक़रार है…!
गरियाबंद hct : प्रदेश में तबादला का ताज़ा मामला लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के “खाद्य एवं औषधि प्रशासन” गरियाबंद जिला से जुड़ा है। विभाग ने हाल ही में तबादलों की सूची जारी की थी। उसी सूची में खाद्य सुरक्षा अधिकारी श्रीमान तरुण बिरला का नाम भी शामिल था। आदेश क्रमांक ESTB-2/52/2025-HEALTH SECTION-1 दिनांक 25 जून 2025 के तहत उन्हें गरियाबंद से बीजापुर स्थानांतरित किया गया। लेकिन अफसोस, यह आदेश कागज तक ही सिमट गया है; और आदेश जारी होने के दो माह बाद भी हकीकत यह है कि साहब उसी कुर्सी पर डटे हुए हैं।
मलाईदार कुर्सी का खेल
सूत्रों के हवाले से स्पष्ट होता है कि साहब गरियाबंद की मलाईदार कुर्सी छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने का विचार त्याग चुके हैं ! महोदय ने ‘स्टे ऑर्डर’ का सहारा लेकर तबादले को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। नतीजा यह हुआ कि अफसर महोदय आज भी उसी कुर्सी पर जमे हैं, जिस पर पिछले दस साल से विराजमान हैं। सवाल यह है कि क्या तबादले अब केवल कागज़ों तक सीमित रह गए हैं? या फिर कुछ कुर्सियाँ इतनी मलाईदार हो चुकी हैं कि उन पर से अफसर खुद ही हटने को तैयार नहीं होते?
प्रदेश की नौकरशाही का यह खेल नया नहीं है। मगर यह मामला इसलिए चर्चा में है क्योंकि इसने साबित कर दिया कि सरकार के आदेशों को नकारने की हिमकात, अफसरों की जुगाड़ के सामने कितनी कमजोर है। आदेश जारी होता है, तबादला सूची बनती है, प्रेस नोट जारी होता है – और हकीकत यह कि अफसर वहीं के वहीं। यानी, ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’।

सैलून की कुर्सी से लेकर जर्दा ठेला तक चर्चा-ए-आम
जिला में हरिराम नाइ की सैलून से लेकर पान ठेला जो इन जैसों की मेहरबानी से अब जर्दा ठेला में तब्दील हो चुका है ‘चर्चा-ए-आम’ है कि “तबादला कोई प्रशासनिक प्रक्रिया” नहीं साहब, “बल्कि रसूख का खेल” है। वरना कोई अफसर पूरे दशक तक एक ही जिले में क्यों टिकेगा? और अगर टिकेगा भी तो किसके संरक्षण में? साफ है कि मलाईदार कुर्सी पर बैठकर सिर्फ एक अफसर ही लाभ नहीं लेता, उसके द्वारा जमाए गए मलाई में कई और हिस्सेदार भी होते हैं।
तरुण बिरला प्रकरण ने यह साफ कर दिया कि कुर्सियाँ अब महज़ सरकारी संपत्ति नहीं रहीं, बल्कि निजी जागीर बन चुकी हैं। अफसर रसूख और स्टे ऑर्डरों के सहारे उन्हें हड़प कर बैठे हैं और व्यवस्था खामोश दर्शक बनी हुई है।
