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Chhattisgarh

अरपा कोल वाशरी : विकास की आड़ में दलाली का खेल

जनसुनवाई से पहले मस्तूरी और आसपास के 25 गाँवों की सांसें थमीं...

जयराम नगर (बिलासपुर) hct : जनसुनवाई का मतलब होता है जनता की राय सुनना, उनकी पीड़ा समझना और उनके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए ठोस निर्णय लेना। लेकिन मस्तूरी क्षेत्र में 25 अगस्त को होने वाली अरपा कोल वाशरी की जनसुनवाई इस परिभाषा को उलटती दिखाई दे रही है। यहाँ विकास का अर्थ सिर्फ और सिर्फ कुछ खास दलालों की जेब भरने से है। दूसरी ओर, भिलाई, बेलटुकरी, रलिया, वेद परसदा, जयराम नगर और भनेशर जैसे गाँव अपने अस्तित्व पर मंडराते संकट को टकटकी लगाए देख रहे हैं। सवाल यह है कि क्या यह विकास है या गाँवों की बर्बादी का फरमान?

किसानों और पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी

अरपा कोल वाशरी की योजना केवल एक उद्योग की स्थापना भर नहीं है, बल्कि यह किसानों और पर्यावरण दोनों के लिए खतरे की घंटी है। जिस प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने गाँवों को शहरों से जोड़ा, वह धूल में मिल जाएगी। जिस गैस पाइपलाइन ने सुविधा दी, वह टूटकर समस्या बन जाएगी। राउत राय बाबा का पवित्र स्थल भी इस उद्योग की चपेट में आ सकता है। सबसे बड़ा सवाल उस विख्यात नाले का है जिससे हजारों किसान भाइयों की फसलें सिंचित होती हैं। जब वही सूख जाएगा तो खेत क्या उपज देंगे और किसान आखिर जिएंगे कैसे? यहाँ विकास के नाम पर जो हो रहा है, वह दरअसल पर्यावरण का विनाश और किसानों की आत्मा से खिलवाड़ है।

ग्रामीणों का कहना है –

 आंदोलन से दलाली तक : चेहरे की पोल खुली

हर आंदोलन में कुछ चेहरे उभरते हैं। लेकिन मस्तूरी के लोग आज यह देखकर हैरान हैं कि पिछले दौर के “आंदोलनकारी” अब कंपनियों के लिए दलाल बन बैठे हैं। जिन्होंने कभी हाथों में बैनर लेकर नारेबाज़ी की, वही अब नोटों की गड्डियों पर बिककर कंपनी के पक्ष में खड़े हो गए हैं। यह जनता की भावनाओं से विश्वासघात है। सवाल यह भी है कि आखिर यह बदलाव अचानक कैसे आया? जवाब साफ है— नोटों की मोटी गड्डियाँ, जिनकी चमक ने आंदोलन की आत्मा को ही बेच दिया। अब ये चेहरे कैमरे से बचते नहीं, बल्कि कैमरे के सामने खड़े होकर अपनी दलाली को उपलब्धि की तरह दिखाते हैं।

ज़मीन के सौदागर और मीडिया की सुर्खियाँ

क्षेत्र का एक कुख्यात दलाल इस बार भी सक्रिय है। वही जो मित्तल और चित्तल की जनसुनवाई में ऐसे कूदा था मानो पूरी वाशरी उसी की जागीर हो। ज़मीन के इस सौदागर ने माँ समान धरती को भी बेचने से परहेज़ नहीं किया। आज यह व्यक्ति मीडिया की सुर्खियों में है, लेकिन सवाल यह है कि क्या मीडिया भी उसकी असलियत दिखाने का साहस करेगा या वही नोटों की चमक यहाँ भी असर दिखाएगी? ग्रामीणों के सामने असली चुनौती यही है कि वे इस चेहरे को पहचानें और समझें कि यह कोई जनहितैषी नहीं बल्कि धरती का व्यापारी है।

जनसुनवाई या जनविनाश का सौदा ?

जनसुनवाई का मकसद जनता की सुरक्षा और सहमति लेना होता है। लेकिन जब तस्वीरें और सबूत बताते हों कि जिन लोगों ने कल तक विरोध किया, वे आज उसी कंपनी के लिए दलाली कर रहे हैं, तो फिर यह जनसुनवाई नहीं, जनविनाश का सौदा कहलाती है। इस सौदे में पर्यावरण भी हार रहा है, गाँव भी हार रहे हैं और सबसे ज्यादा हार रहे हैं वे किसान जिनकी पीढ़ियाँ इसी मिट्टी से जुड़ी हैं। सवाल यह भी है कि जब माँ समान धरती की कीमत नोटों से तय होने लगे तो फिर लोकतंत्र की परिभाषा बचती भी है या नहीं।

जनता के सामने विकल्प

आज मस्तूरी क्षेत्र की जनता के सामने दो ही रास्ते हैं। या तो वे चुपचाप दलालों और कंपनियों की चाल में फँसकर अपनी ज़मीन, पर्यावरण और भविष्य को खो दें, या फिर उठकर यह बता दें कि विकास का मतलब दलाली नहीं होता। यह जंग सिर्फ गाँवों के लिए नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी है। सवाल यह नहीं है कि कोल वाशरी खुलेगी या नहीं, बल्कि यह है कि क्या जनता अपनी ज़मीन और पर्यावरण की रक्षा के लिए एकजुट होकर खड़ी होगी या दलालों की चाल में बह जाएगी…

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