रायपुर काली मंदिर में धर्म के नाम पर धंधा – श्रृंगार और आरती तक की रसीद !
"श्रद्धा या कारोबार? रायपुर के प्राचीन काली मंदिर में आस्था पर रसीद का बोझ"

जहां कभी स्वेच्छा से दी गई दक्षिणा ही माता के श्रृंगार के लिए पर्याप्त थी, वहीं अब हर पूजा-श्रृंगार का ‘रेट कार्ड’ टांग दिया गया है। सवाल यह है कि यह भक्ति है या फिर धर्म के नाम पर धंधा ? कहा जाता है कि मंदिर आस्था का वह स्थान है जहां अमीर-गरीब का भेद मिट जाता है, लेकिन इस मंदिर का हाल देखकर यही कहना पड़ेगा – यहां अब भेदभाव जेब से तय होगा।
रायपुर hct : राजधानी रायपुर का नाम लेते ही आकाशवाणी चौक के पास स्थित प्राचीन मां काली मंदिर की छवि हर श्रद्धालु के मन में उभर आती है। यह वह स्थान है जहां कभी भक्त बिना किसी औपचारिकता के माता को प्रसन्न करने आते थे। प्रसाद हो या श्रृंगार, हर चीज़ श्रद्धा की स्वेच्छा पर आधारित थी। भक्त अपनी आस्था के अनुसार जो भी राशि पंडितों को दे देते, उसी से माता का श्रृंगार हो जाता और प्रसाद चढ़ जाता। न कोई रसीद की ज़रूरत, न कोई बंधन – केवल भावनाओं का लेन-देन।
लेकिन इस वर्ष नवरात्रि से पहले जो तस्वीर सामने आई है, उसने हर उस श्रद्धालु को झकझोर दिया है जो इस मंदिर की परंपरा और सादगी से वाकिफ़ रहा है। अब मंदिर के भीतर बाकायदा “रेट लिस्ट” चस्पा कर दी गई है। पहले श्रृंगार, दूसरा श्रृंगार, शाम की आरती के बाद का श्रृंगार—यहां तक कि रात भर का “समय श्रृंगार”—सबका दाम तय है। 3100 से लेकर 5100 रुपये तक की रसीद भक्तों को अनिवार्य रूप से कटवानी होगी।
सवाल यह है कि क्या माता की भक्ति अब भी श्रद्धा की कसौटी पर खरी है या फिर नोटों की गड्डियों पर?
परंपरा से कारोबार तक का सफर
कभी यही मंदिर सादगी और विश्वास का प्रतीक माना जाता था। कोई गरीब भी माता के दरबार में प्रसाद लेकर आता तो उसका स्वागत होता। कोई अमीर श्रृंगार करता तो उसकी आस्था भी स्वीकार होती। परंपरा का मूल भाव यही था कि “मां सभी की हैं, आस्था किसी की जेब देखकर नहीं तोली जाती।” मगर अब हालात बदल गए हैं। इस नए “धार्मिक रेट कार्ड” ने मंदिर को श्रद्धा का केंद्र कम और कारोबार का अड्डा ज़्यादा बना दिया है।
धर्म के नाम पर ‘धंधे’ की पैकिंग
प्रबंधन की ओर से दलील दी जाती है कि यह “दान राशि” है, मगर भक्तों के अनुभव कुछ और ही कहते हैं। “दान” शब्द में स्वेच्छा का भाव निहित है, लेकिन जब रसीद अनिवार्य कर दी जाए, तो वह दान नहीं, बल्कि शुल्क हो जाता है। यानी अब भक्ति भी टैक्स स्लिप के साथ मिलेगी।
हद तो यह है कि सुबह 5 बजे की आरती से लेकर रात 10 बजे तक, हर श्रृंगार और पूजा का पैकेज अलग-अलग तय कर दिया गया है। भक्तों को “भोग प्रसाद” तक ट्रस्ट की अनुमति से ही मिलेगा। आस्था की पवित्रता पर ये नए “नियम” एक करारा तमाचा हैं।
श्रद्धालु की जेब बनाम माता की भक्ति
यहां बड़ा सवाल यही उठता है कि गरीब भक्त अब कहां जाएं? 5100 रुपये देकर अगर हीरे-जवाहरात सा श्रृंगार ही करना है, तो गरीब किसान या मज़दूर की जेब कहां से साथ देगी? क्या अब माता केवल उन भक्तों की होंगी जो जेब ढीली कर सकें?
आलोचना क्यों ज़रूरी है
किसी भी परंपरा में बदलाव बुरा नहीं होता, अगर वह समय और समाज के हित में हो। लेकिन जब बदलाव भक्ति को व्यापार में बदल दे, तो सवाल उठना लाज़मी है। रायपुर का यह काली मंदिर अब “श्रद्धा से धन-संग्रह” की राह पर है। भक्तों की भावनाएं वहां बंधक बन चुकी हैं और मंदिर की गरिमा सवालों के घेरे में है।
जहां कभी मां काली के दरबार में “भक्ति ही मुद्रा” हुआ करती थी, वहीं आज वहां “रसीद ही पहचान” बन चुकी है। यह बदलाव न केवल आस्था को चोट पहुंचा रहा है बल्कि धर्म के नाम पर चल रहे धंधे की सच्चाई भी उजागर करता है।
