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Chhattisgarh

३६गढ़ : पुलिस कमिश्नर प्रणाली से बदलाव या पुलिस रिफॉर्म की दरकार?

क्या सुप्रीम कोर्ट के 2006 वाले प्रकाश सिंह पुलिस रिफॉर्म आदेश अब भी सरकारों के लिए महज़ ‘रबर की मोहर’ हैं ?

प्रदेश में लगातार बढ़ते अपराध और बेलगाम अपराधियों के आगे पुलिस का ढीला नियंत्रण यह बताने के लिए काफी है कि मौजूदा व्यवस्था चरमराई हुई है। हत्या, बलात्कार, लूट और साइबर अपराध जैसे मामलों में उछाल यह साबित करता है कि गृह मंत्री का विभाग महज़ औपचारिकता निभा रहा है।

11 महीने के कार्यकाल में जिस तरह अपराध ग्राफ़ ने रफ्तार पकड़ी, उससे साफ होने लगा है कि सुशासन का चक्र अब मंद हो चुका है। ऐसे में 15 अगस्त को प्रदेश के मुखिया ने यह घोषणा करके सबको चौंका दिया कि “प्रदेश में जल्द ही पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की जाएगी।” अब बहस छिड़ गई है कि –
आखिर प्रदेश को “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” चाहिए या “पुलिस रिफॉर्म”?

*दिनेश सोनी।

रायपुर hct :  छत्तीसगढ़ की राजनीति और सुरक्षा तंत्र के बीच इन दिनों एक नया मुद्दा तैर रहा है – पुलिस कमिश्नर प्रणाली। मुख्यमंत्री ने जब इसे लागू करने की संभावना जताई तो प्रशासनिक हलकों से लेकर थानों तक हलचल मच गई। वहीं, मंच पर बैठे अफसर की मुस्कान ने इस चर्चा को और रोचक बना दिया। सवाल यह है कि क्या वाकई यह प्रणाली प्रदेश की सुरक्षा चुनौतियों का हल है, या फिर यह एक और “दिखावटी औजार” बनकर रह जाएगी?

कमिश्नर प्रणाली : इलाज या दिखावा?

कमिश्नर प्रणाली का तर्क बड़ा सीधा है – बढ़ते शहरीकरण, जटिल अपराध और त्वरित कार्रवाई की ज़रूरत को देखते हुए पुलिस को अधिक अधिकार दिए जाएँ। वर्तमान में जिलों में कानून-व्यवस्था का जिम्मा कलेक्टर के पास होता है, पर कमिश्नर सिस्टम में मजिस्ट्रेटी पावर सीधे पुलिस कमिश्नर को मिलते हैं। नतीजतन पुलिस को हर छोटे फैसले के लिए प्रशासन के दरवाज़े खटखटाने की जरूरत नहीं पड़ती। दिल्ली, मुंबई, पुणे, बेंगलुरु जैसे शहरों में यह मॉडल पहले से चल रहा है।

सैद्धांतिक तौर पर इसके फायदे चमकते हुए लगते हैं। अपराध पर फुर्ती से काबू पाया जा सकता है, ट्रैफिक से लेकर दंगों तक पुलिस का एकक्षत्र नियंत्रण रहेगा और जवाबदेही भी तय होगी। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी उतना ही अहम है। जब सारी ताकत पुलिस के हाथ में आ जाती है तो मनमानी, दमन और जनता से दूरी बढ़ने का खतरा रहता है। लोकतांत्रिक ढाँचे में जहाँ “निगरानी और संतुलन” का सिद्धांत जरूरी है, वहाँ सारी कमान एक ही खेमे में केंद्रित होना बड़े सवाल खड़े करता है।

अपराध बेलगाम, बेअसर गृह मंत्री

अब ज़रा छत्तीसगढ़ की हकीकत देखें। बीते 11 महीनों में गृह मंत्री का रिकॉर्ड जनता के सामने है। अपराध दर लगातार ऊपर जा रहा है, गैंगरेप, लूट, मर्डर से लेकर नशे और खनन माफियाओं तक अपराधियों की बेलगाम हिम्मत दिख रही है। सवाल उठता है कि आखिर गृह विभाग का नियंत्रण कहां है? पुलिस का मनोबल क्यों गिरा हुआ है? जनता की सुरक्षा का एहसास क्यों गुम है? ऐसे में कमिश्नर प्रणाली की घोषणा करना कहीं किसी टूटी छत पर नई पेंटिंग करने जैसा तो नहीं?

असली ज़रूरत – पुलिस रिफॉर्म

गृह मंत्री के रहते हालात में सुधार क्यों नहीं हुआ? यह सवाल टालकर केवल “नई प्रणाली” का राग अलापना आसान रास्ता हो सकता है। लेकिन जनता जानती है कि समस्या अधिकारों की कमी से ज़्यादा, जवाबदेही की कमी से है। छत्तीसगढ़ के शहरों में अपराध रोकने के लिए सिर्फ़ पुलिस की ताकत बढ़ाना पर्याप्त नहीं है। असल ज़रूरत है – पुलिस रिफॉर्म की।

पुलिस रिफॉर्म यानी भर्ती प्रक्रिया से लेकर प्रशिक्षण, संवेदनशीलता, तकनीकी संसाधन, जवाबदेही तंत्र और राजनीतिक दखल से मुक्ति तक का एक व्यापक सुधार पैकेज। जब तक थानों में पीड़ित को इंसाफ़ नहीं मिलेगा, जब तक पुलिस का रवैया “सहयोगी” की बजाय “हुक्म देने वाला” रहेगा, तब तक कमिश्नर प्रणाली भी सिर्फ़ कुर्सियों की अदला-बदली बनकर रह जाएगी।

जवाब मांगे जनता

यही वजह है कि बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर समाजसेवी तक यह सवाल पूछ रहे हैं – क्या छत्तीसगढ़ को वाकई पुलिस कमिश्नर प्रणाली की ज़रूरत है, या हमें पुलिस सुधार की हिम्मत जुटानी होगी? अपराधियों के खिलाफ़ कड़े कदम तभी उठेंगे जब पुलिस को राजनीतिक दबाव से आज़ादी मिलेगी, जब उसकी जवाबदेही साफ़ होगी और जब जनता पुलिस को दुश्मन नहीं, साथी मान सकेगी।

आज की स्थिति यह है कि गृह मंत्री का विभाग “नकाबिल” करार दिया जा रहा है और अपराध की बाढ़ ने जनता का भरोसा डगमगाया है। ऐसे में यदि सरकार कमिश्नर प्रणाली को थोपती है तो यह बहस और गहरी होगी कि क्या यह केवल “जिम्मेदारी टालने का नया तरीका” है।

जीएसटी, स्मार्ट सिटी… और अब कमिश्नरेट – दिखावटी बड़े फैसले जनता को कुछ वक्त के लिए चौंकाते हैं, पर असलियत वहीं की वहीं रहती है। छत्तीसगढ़ की जनता चाहती है ठोस सुधार, न कि पैकेजिंग में बंद पुरानी समस्याएँ। इसलिए असली मुद्दा यही है – क्या हमें “पुलिस कमिश्नर प्रणाली चाहिए या पुलिस रिफॉर्म” जवाब सरकार को देना होगा।

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