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Chhattisgarh

तनाव की दहलीज पर खड़ा छत्तीसगढ़…

प्रतिमा अपमान, विवादित बयानों और वायरल वीडियो ने छत्तीसगढ़ में अविश्वास का तूफ़ान।

रायपुर hct : छत्तीसगढ़ की फिजा इन दिनों तनाव और अविश्वास के बादलों से घिरी नजर आ रही है। नक्सल हिंसा के लंबे दौर से उबरता प्रदेश अब एक नए सामाजिक तूफान के मुहाने पर खड़ा दिखाई दे रहा है। हथियारबंद नक्सलियों का प्रभाव भले घटा हो, परंतु सामाजिक असंतुलन और धार्मिक असहिष्णुता का ज़हर अब धीरे-धीरे माहौल को दूषित करने लगा है।
ऐसे समय में जब राज्य अपने विकास मॉडल, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक पहचान को नए सिरे से मजबूत करने की कोशिशों में लगा हुआ था, ठीक उसी समय कुछ घटनाओं की श्रृंखला ने इस संतुलन को झकझोर दिया। मानो एक शांत तालाब में किसी ने लगातार कंकड़ फेंक दिए हों – लहरें थमने का नाम ही नहीं ले रहीं। हर घटना, इसके ठीक बाद उठने वाली प्रतिक्रिया तथा डिजिटल माध्यमों में फैलता आक्रोश – इन सबने मिलकर एक ऐसा वातावरण बना दिया है जहाँ भरोसे की डोर लगातार कमजोर होती जा रही है।

महतारी की प्रतिमा तोड़े जाने का विवाद 

सबसे पहले बात उस घटना की जिसने राज्य की सांस्कृतिक संवेदना को सीधे झकझोर दिया – “छत्तीसगढ़ महतारी” की प्रतिमा तोड़े जाने की घटना। किसी भी क्षेत्र की पहचान केवल प्रतीकों से नहीं, बल्कि उन प्रतीकों के प्रति जनभावना से तय होती है। जब यही प्रतीक आहत होते हैं, तो समाज के भीतर दबा हुआ असंतोष अचानक बाहर उमड़ पड़ता है। यही इस बार भी हुआ। घटना चाहे किसी आवेग, असावधानी या अन्य कारणों से हुई हो, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया व्यापक थी।
सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर हुए शांतिपूर्ण विरोध तक, लोग अपने स्वर में एक बात साफ कर रहे थे – सांस्कृतिक अस्मिता से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं। इस घटना का भावनात्मक असर इतना गहरा था कि उसकी आंच प्रशासनिक तंत्र तक महसूस की गई। और इसी कड़ी में, जब इस पर दिए गए कुछ राजनीतिक बयान सामने आए, तो स्थिति और गंभीर हो चली।

अमित बघेल के बयान और पारे की तरह चढ़ता जनाक्रोश

प्रतिमा विवाद के बाद सामने आया एक विवादित बयान और उस पर शुरू हुआ नया राजनीतिक – सामाजिक घमासान। प्रदेश का माहौल पहले ही संवेदनशील था, और ऐसे वक्त में हर शब्द किसी जलते मैदान पर चिंगारी की तरह असर डाल रहा था। जनमानस में यह अनुभूति तेजी से फैलने लगी कि संवेदनशील मुद्दों पर संयमित भाषा का अभाव केवल आग में घी डालने का काम कर रहा है। राजनीतिक गलियारों में बयान अपनी दिशाएँ बदलते रहे, मगर समाज में भरोसे के धागे उलझते चले गए। कई वर्गों ने इसे अपने सम्मान और पहचान से जुड़ा विषय माना। यहाँ से स्थिति केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदनशीलता का मुद्दा बन चुकी थी।

संत गुरु घासीदास जी पर आपत्तिजनक टिप्पणी

प्रतिमा विवाद थमा भी नहीं था कि एक और घटना ने लोगों की भावनाओं को झकझोर दिया – एक अधेड़ व्यक्ति, जो कथित रूप से शराब के नशे में था, द्वारा संत गुरु घासीदास जी के संबंध में अभद्र भाषा का वीडियो सामने आया।
यह मामला केवल “किसी के नशे में दिए बयान” जितना सरल नहीं था। गुरु घासीदास जी की वाणी और विचार प्रदेश के सामाजिक–आर्थिक ढाँचे की नींव में रचे-बसे हैं। छत्तीसगढ़ में लाखों लोग उनकी शिक्षाओं को सामाजिक बराबरी और सत्यनिष्ठा का मार्गदर्शन मानते हैं। ऐसे में उनकी महिमा पर असम्मानजनक टिप्पणी को लोग केवल एक व्यक्तिगत कृत्य नहीं, बल्कि पूरे समुदाय के सम्मान पर चोट के रूप में देख रहे थे। यह घटना भी क्षणिक न होकर सोशल मीडिया की गति के साथ पूरे प्रदेश में फैल गई। इसके बाद विभिन्न वर्गों का रोष सामने आया, शिकायतें दर्ज हुईं और कानून अपनी प्रक्रिया में सक्रिय हुआ। लेकिन इससे पहले कि हालात सामान्य होते, घटनाओं की श्रृंखला में एक और नाम जुड़ गया।

कथावाचक आशुतोष चैतन्य को लेकर विवाद

संवेदनशील घटनाओं के इस क्रम में कथावाचक आशुतोष चैतन्य का एक वीडियो भी बहस में आ गया। कथावाचन की परंपरा जहाँ आमतौर पर समरसता, आध्यात्मिक बोध और समाज को जोड़ने का काम करती है, वहीं जब किसी प्रवचन का अंश विवादों में घिरता है, तो उसका असर सामान्य से कई गुना बढ़ जाता है।
जनता पहले ही सांस्कृतिक प्रतीकों और संत परंपरा के अपमान को लेकर आक्रोशित थी, ऐसे में यह नया विवाद सामाजिक तनाव के तापमान को एक और पायदान ऊपर ले गया। लोग यह समझने की कोशिश में लगे थे कि आखिर छत्तीसगढ़ की शांत सामाजिक संरचना में इतनी दरारें पैदा किस वजह से हो रही हैं और इन्हें सहेजने की जिम्मेदारी किसकी है।

डिजिटल बाज़ार में बिकती आधी सच्चाइयाँ

इन घटनाओं के बीच सबसे बड़ा बदलाव यह दिखा कि समाज में अविश्वास की परतें केवल जमीन पर नहीं, बल्कि डिजिटल दुनिया में भी तेजी से गहराती गईं। पहले जहाँ किसी विवाद को फैलने में समय लगता था, अब वही घटना कुछ ही मिनटों में पूरे प्रदेश के माहौल को बदल देती है। वीडियो क्लिप्स, अधूरे बयान, संदर्भ विहीन कट–पेस्ट सामग्री और प्रतिक्रिया की जल्दबाज़ी – ये सब मिलकर एक ऐसी सूचनात्मक आँधी तैयार करते हैं, जिसमें आम नागरिक यह समझ ही नहीं पाता कि वह वास्तविकता देख रहा है या किसी भावनात्मक संपादन का परिणाम। इसी गुत्थी में जनमानस धीरे–धीरे उस दिशा में बहने लगता है जहाँ आक्रोश सच्चाई से ज़्यादा प्रभावी दिखाई देता है। और यहीं से समाज के भीतर अविश्वास का दायरा उस गति से बढ़ने लगता है, जिसकी कल्पना भी कुछ वर्ष पहले तक नहीं की जा सकती थी।

अंदर ही अंदर खदबदा रहा छत्तीसगढ़ 

इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि राज्य एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गया है जहाँ साधारण से साधारण विवाद भी असाधारण रूप ले सकता है। जहाँ पहले सामाजिक नेतृत्व शांति-संवाद का रास्ता दिखाता था, अब वहाँ आवाज़ें दो दिशाओं में खिंच रही हैं – एक ओर आहत जनभावना, दूसरी ओर कथित राजनीतिक प्रतिक्रिया। लोग इस भय में जी रहे हैं कि कहीं कल को कोई और प्रतीक, कोई और प्रतिमा, कोई और वाणी किसी नए विवाद को जन्म न दे दे। प्रशासन भी लगातार दबाव में है कि कैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था की सीमाओं में रहते हुए इस उबाल को संभाला जाए।
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