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सारकेगुड़ा : जिन्हें सींखचों में होना चाहिए; वो बाहर हैं ! और जिन्हें बाहर होना था वे कैद में।

रायपुर। *सारकेगुड़ा का सच सामने नहीं आ पाता, अगर छत्तीसगढ़ के मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज ना होती। महाराष्ट्र के पुणे जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज ही वो महिला है, जिन्होंने सारकेगुड़ा के पीड़ित ग्रामीणों की न्यायिक आयोग के सामने गवाही सुनिश्चित की।

सारकेगुडा की ज़मीनी हक़ीकत को भांपते हुए सुधा भारद्वाज खुद बीजापुर गईं और ग्रामीणों की गवाही का इंतज़ाम कराया। उन्होंने 30-35 ग्रामीणों की गवाही को शपथपत्र के ज़रिए न्यायिक आयोग के पास जमा कराया। इसके लिए सुधा भारद्वाज को; न्यायिक आयोग को विश्वास दिलाना पड़ा कि ग्रामीणों तक सूचना नहीं पहुंच पाई थी, न ही उनके हालात ऐसे थे कि वो न्यायिक आयोग के पास बिना किसी की मदद के पहुंच सकते।

कौन है सुधा भारद्वाज ?

सुधा भारद्वाज एक मानवाधिकारों की कानूनी लड़ने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। सुधा करीब तीन दशक से छत्तीसगढ़ में काम कर रही हैं। वह छत्तीसगढ़ में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिब्रेशन (पीयूसीएल) की महासचिव भी हैं। सुधा का जन्म अमेरिका में हुआ लेकिन 11 साल की उम्र में वह भारत लौट आईं और 18 साल की अवस्था में पहुंचने पर उन्होंने अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़ दी। सुधा ने आईआईटी कानपुर से गणित की पढ़ाई की। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार में मजदूरों की भयावह दशा देख उन्होंने श्रमिकों के लिए काम करने का मन बना लिया और वह 1986 में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़ गईं। भीमा-कोरेगांव केस में सुधा भारद्वाज सहित पांच लोगों को ये कहकर किया गिरफ़्तार किया है कि वो माओवादियों के शहरी नेटवर्क (अर्बन नक्सली) का हिस्सा हैं। सुधा भारद्वाज अब तक जेल में क्यों ?

अगर ये शपथपत्र न्यायिक आयोग के समक्ष नहीं आता तो जांच में ग्रामीणों का पक्ष पुख्ता तौर पर सामने नहीं आ पाता। राजनीतिक रुप से कांग्रेस ने इस मुद्दे को ज़ोरशोर से उठाया था। कांग्रेस ने कवासी लखमा की अगुवाई में पार्टी की एक जांच कमेटी बनाई थी। कवासी की कमेटी ने इस एनकाउंटर को फर्जी करार दिया। लेकिन नंद कुमार पटेल की नक्सलियों द्वारा हत्या किये जाने के बाद कांग्रेस की राजनीतिक लड़ाई की आंच मद्धम हो गई।

तब सुधा भारद्वाज ने मोर्चा संभाला। उन्होंने आदिवासियों की मदद उस संस्था के ज़रिए जारी रखी जिसकी वो महासचिव थीं। People’s Union for Civil Liberties (PUCL) का दफ्तर मई-जून 2013 में जगदलपुर में खुल गया; जिसे इस केस में ग्रामीणों की मदद की ज़िम्मेदारी सुधा भारद्वाज ने सौंपी। सुधा भारद्वाज के बाद इस केस से मुंबई के नामी वकील युग चौधरी जुड़ गए जो भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में सुधा भारद्वाज के वकील हैं।

शालिनी गेरा

उनकी सहयोगी और पीयूसीएल की शालिनी गेरा लगातार इस केस को देखती रहीं। शालिनी गेरा बताती हैं कि जब जगदलपुर में गवाही हुई थी तब सुधा नहीं पहुंच पाई थीं, लेकिन पत्रकारों की गवाही के वक्त वे फिर पहुंची।

युग चौधरी ने रायपुर में 2014 में हुई सीआरपीएफ के जवानों और अधिकारियों की गवाही के दौरान क्रास एक्ज़ामिनेशन में जो बातें निकालकर लाईं वो आयोग के इस निष्कर्ष तक पहुंचने में मददगार साबित हुआ। सीआरपीएफ की गवाही से ही ये बात सिद्ध हो गई थी कि ये घटना एनकाउंटर की नहीं है। इसका ज़िक्र जस्टिस व्ही.के. अग्रवाल की रिपोर्ट में है।

शालिनी गेरा बताती हैं कि सुधा भारद्वाज लगातार इस जांच पर नज़र बनाए हुई थीं। शालिनी बताती हैं कि 2015 में पुलिस का क्रास एग्जामिनेशन जगदलपुर में हुआ जिसमें ये बात सामने आई कि जिन पुलिस वालों को इसमें खड़ा किया जा रहा है उन्हें इस घटना के बारे में नहीं मालूम है। घटना के बाद कुछ ग्रामीण घायल हुए थे, जिनका इलाज रायपुर में कराया गया था, इनमे से दो ग्रामीणों को एक महीने बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। ये दोनों चार साल बाद बरी हो गए। रिपोर्ट में पुलिस की इस जांच को द्वेषपूर्ण माना है।

*Rupesh Gupta

 

 

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