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Chhattisgarh

विद्रोह की आग ज्वालामुखी बनकर कहीं फट न पड़े।

क्या जनता के विश्वास की हत्या किसी राष्ट्रद्रोह से कम नहीं ?

क्या जनता के विश्वास की हत्या किसी राष्ट्रद्रोह से कम नहीं ?

रायगढ़। मेरा एक सवाल आप सभी से अभी हाल में ही डोलेसरा जनसुनवाई में जो विरोध हुआ उसका अंत पत्थरबाजी में बदल गया, जो दुर्भाग्यपूर्ण रहा क्योंकि पुलिस प्रशासन की स्थिति बिल्कुल निष्पक्ष रही यह हम सब ने देखा है लेकिन यह उग्र भीड़ जनसुनवाई के समापन के पश्चात पत्थरबाजी पर उत्तर गई क्या हमें इन किसानों, नौजवानों, आदिवासियों के क्रोध के कारणों का पता नहीं लगाना चाहिए ?

File photo

क्या पता आने वाले समय में कानून अपना काम करें और पत्थरबाजी के कारण कई ग्रामीण, कई नौजवान, कई आदिवासी भाई कानूनी चपेट में आ जाए लेकिन उससे पहले की तस्वीर क्या थी ?

आपने कभी विचार किया है कि चुनाव के पूर्व कांग्रेस का बड़ा नेता आकर यह कहता है कि हम ग्रामीणों के हर लड़ाई का कदम से कदम मिलाकर समर्थन करते हैं एक बीजेपी का बड़ा नेता कहता है कि यह क्षेत्र आदिवासियों का है यहां पेसा एक्ट लागू है। यहां हर हाल में जनसुनवाई होना ही नहीं चाहिए और हम यह होने नहीं देंगे।

आस थी, कि हमारा कोई है

इन दोनों पार्टियों के कद्दावर नेताओं के लंबे भाषण सुनने के बाद लोगों में एक आस जगी थी कि हां; हमारा कोई है। परंतु जनसुनवाई में यह नदारद रहे और सुनने में यहां तक आ रहा है कि दोनों पार्टियों के नेताओं ने स्थानीय नेताओं ने मोटी रकम लेकर जनसुनवाई का समर्थन किया तभी तो ये विरोधियों के साथ जैसे चुनाव के पहले नजर आए थे वैसे नजर नहीं आए। चुनाव के बाद एक ने सरकार बना ली, एक की सरकार गिर गई।

हारने वाला भी वही है और जीतने वाले का भी वही हाल है। मैं तो आदरणीय पुलिस विभाग से विनती करता हूं कि जनसुनवाई में पत्थरबाजों के ऊपर कार्यवाही करने से पहले आप उन कद्दावर नेताओं के ऊपर राष्ट्रद्रोह और जनता के विश्वास की हत्या करने की आरोप में उन्हें तत्काल गिरफ्तार कर जेल भेज दे।

क्या जनता से किए हुए वादे फिर जनता से किए हुए विश्वासघात यह किसी राष्ट्रद्रोह से कम है, यह किसी हत्या से कम तो नहीं। आदरणीय पुलिस विभाग यह विरोध का जो स्वर है इनका कारण यही राजनीतिक दल है। क्योंकि इन्होंने हर जनसुनवाई में कभी भी अपना चेहरा स्पष्ट जनता के सामने नहीं रखा है और रखा भी है तो जनता ने स्वत: समझ लिया है कि यह नेता, यह सफेदपोश केवल और केवल उद्योगों की पैरवी करती है और उनसे मोटी रकम लेकर ही समर्थन करती है।

जनसुनवाई कर उद्योगों से सौदेबाजी पैदा होते हैं

अगर इन राजनीतिक दलों के नेताओं को यह लगता है कि उद्योगों से विकास पैदा होते हैं, उद्योगों से रोजगार पैदा होता है तो यह सौदेबाजी कर जनसुनवाई का समर्थन क्यों करते हैं ? और अगर कोई यह कह दे कि हमने बगैर पैसा लिए जनसुनवाई का समर्थन किया है; तो वे अपने बच्चों के सर पर हाथ रख के बोल दे कि हमने बिना पैसा लिए जनसुई का समर्थन किया है।

विद्रोह की आग ज्वालामुखी बनकर कहीं फट न पड़े इसलिए आदरणीय पुलिस विभाग आप जनता की कुछ गलतियों को नजरअंदाज करते हुए उससे पहले उन नेताओं पर कार्रवाई करें जिन्होंने गरीब आदिवासी, गरीब किसानों, मजदूरों के मासूम दिल को कुरेदा है, उनके भोलेपन को, उनके विश्वास की हत्या की देशद्रोही और हत्या का केस जो पहले इन पर बनता है।

साभार : गोपाल प्रसाद गुप्ता के फेसबुक वाल से।

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