निर्विरोध चुनाव जितने वाले प्रत्याशियों पर लटक रही सुप्रीम कोर्ट की तलवार
‘नोटा’ मौजूद तो निर्विरोध कैसे ? सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से मांगा हलफनामा
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रायपुर hct desk : देश में चुनावी माहौल है मगर इसी दौरान चुनाव में प्रत्याशियों के निर्विरोध निर्वाचित होने को लेकर बीते 15 दिन से इस बात की खूब चर्चा है। चुनावी समर में यदि किसी सीट हेतु एक ही उम्मीदवार होने पर भी यदि मतदाता के पास नन ऑफ द एबोव (इनमें से कोई नहीं) “नोटा” का विकल्प मौजूद है तो संबंधित प्रत्याशी का मतदान कराए बिना निर्विरोध निर्वाचन कैसे हो सकता है?
पीडब्ल्यूए की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने लिया संज्ञान
दरअसल यह मुद्दा तब परवान चढ़ा जब पब्लिक वेलफेयर एसोसिएशन (पीडब्ल्यूए) ने इस पर आपत्ति जताते हुए राष्ट्रपति और मुख्य चुनाव आयुक्त को पत्र लिखकर यहां प्रत्याशी को नोटा के साथ मतदान कराने की मांग की है, ताकि मतदान के संविधान प्रदत्त अधिकार का पालन किया जा सके। हालांकि जब 2014 से पहले जब नोटा लागू नहीं हुआ था, तब वोटर यदि अगर किसी प्रत्याशी को वोट नहीं देना चाहता था तो उसे फॉर्म 490 भरना पड़ता था। हालांकि, पोलिंग स्टेशन पर ऐसे फॉर्म भरना उस वोटर के लिए खतरा भी हो सकता था। यह कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स, 1961 का उल्लंघन भी था। इससे वोटर की गोपनीयता भंग होती थी।
भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध विजेता घोषित करने पर हुआ विवाद
गौरतलब है कि गुजरात की सूरत सीट पर भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध विजेता घोषित करने पर विवाद खड़ा हो गया। हुआ यूँ कि सूरत लोकसभा सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी का पर्चा रद्द होने और अन्य निर्दलीय उम्मीदवारों के पर्चा वापस लेने के बाद भाजपा प्रत्याशी मुकेश दलाल को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया गया। नन ऑफ द एबव (नोटा) के वर्ष 2014 में लागू होने के बाद लोकसभा चुनाव में यह पहला अवसर है जब कोई प्रत्याशी निर्विरोध जीता है। पब्लिक वेलफेयर एसोसिएशन ने अपने शिकायती व मांगपत्र में कहा है कि जब जनता के पास प्रत्याशी और नोटा दोनों के विकल्प मौजूद हैं, तो ऐसे में निर्विरोध रूप से निर्वाचित घोषित करना लोकतांत्रिक व्यवस्था में ठीक नहीं है।
हरियाणा का हवाला भी दिया
पत्र में 2018 में हुए हरियाणा के निकाय चुनावों में वहां के राज्य चुनाव आयुक्त के निर्देशों का हवाला भी दिया गया है। इसमें हरियाणा चुनाव आयोग ने नगर निगम चुनावों में ‘उपरोक्त में से कोई नहीं यानी’ यानी नोटा विकल्प को ‘काल्पनिक उम्मीदवार’ के रूप में मानने का निर्णय लिया था। चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया था कि नोटा को एक काल्पनिक चुनावी उम्मीदवार के रूप में माना जाएगा। यदि चुनाव में सभी उम्मीदवारों को व्यक्तिगत रूप से काल्पनिक उम्मीदवार, नोटा के लिए डाले गए वोट से कम वोट मिलते हैं, तो किसी भी उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित नहीं किया जाएगा। चुनाव रद्द कर दिया जाएगा और नए सिरे से आयोजित किया जाएगा।
संविधान में वोट देने के अधिकार की गारंटी
संविधान में वोट देने के अधिकार की गारंटी अनुच्छेद 326 के तहत दी गई है। इस अनुच्छेद में इसे पूरी तरह स्पष्ट भी किया गया है कि लोकसभा और प्रत्येक राज्य की विधानसभाओं के लिए चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी भी मतदाता का यह मूल अधिकार है कि वह बिना किसी डर, दबाव या जोर-जबरदस्ती के अपने मताधिकार का इस्तेमाल करें। इस वजह से मतदाता की पहचान को सुरक्षित रखना और गोपनीयता मुहैया कराना स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का अभिन्न अंग है और ऐसा ना करना मतदान करने और न करने वाले में भेदभाव है जो कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 (1) (ए) और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट ने पीयूसीएल के मामले में 2013 में दिया था निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने पीयूसीएल के मामले में 2013 में निर्णय दिया था कि ईवीएम पर नोटा विकल्प चुनकर नकारात्मक वोट डालने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत संरक्षित है। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन.कोटिश्वर सिंह की बेंच ने इस मामले में केंद्र सरकार से जवाबी हलफनामा मांगा है। सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत ने टिप्पणी की कि पीआइएल में बहुत ही तार्किक मुद्दा उठाया गया है। इस मामले पर 19 मार्च को आगे सुनवाई होगी।