रोने से “हत्या” का पाप धुल जाता है क्या ?
रायपुर। रोने से हत्या का पाप धुल जाता है क्या ? बस्तर का सच दिखाने वालों को थाने में बिठाया जाता है और फर्जी विकास पर फ़िल्म बनाने के लिए जान जोखिम में डालकर निहत्थे पत्रकारों को सीधे युद्ध में झोंक दिया जाता है।
किस अधिकार से पुलिस अधीक्षक ने मीडिया कर्मियों को सर्चिंग पार्टी के साथ जाने दिया ? क्या विकास की रिपोर्ट पुलिस सुरक्षा में ही हो सकती है ?
यह सच है कि पिछले दो सालों में बस्तर पुलिस और पैरामिलिट्री की अथक मेहनत से दुर्गम इलाकों में रोड बनी और कई बनने की ओर अग्रसर है, कथित विकास के तहत अब बाजार भी आदिवासियों तक पहुंच रहा है। फिर भी ये विकास दिखाने वाले बस्तरियों के आंखों में आंखे डालकर कह सकते हैं क्या कि इन इलाकों में पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी उन सुविधाओं को भी शुरू किया हो जिसे लेकर अभी तक माओवादियों ने कोई अड़ंगा डाला ही नही था ।
ऐसे कुछ इलाके जो अभी कुछ समय पहले तक पूरी तरह माओवादियों के कब्जे में था, और जो अभी भी हैं। यहां दस दिन से ज्यादा रहकर आया हूँ। 100 किमी से ज्यादा पैदल भी चला हुं, स्वास्थ्य अभी भी कुछ ठीक नही, सो अभी इस यात्रा पर लिखना शेष है। दक्षिण बस्तर के दुर्गम इलाकों में और माड़ के भीतर तक रोड बनाने की जिद और लगन के लिए बस्तर के तमाम पुलिस अधिकारी के काम और इच्छा शक्ति की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी । विशेषकर सुकमा एसपी अभिषेक मीणा जिसने बस्तर को हैदराबाद से जोड़ने वाली कोंटा- सुकमा रोड जो बरसों से प्रतीक्षित थी उसे तमाम प्रकार के तकनीकी और विभागीय अड़ंगों के बावजूद अपनी जिद से एक साल के भीतर पूरी कर डाली , हालांकि इसके लिए भी कम कुर्बानी नही देनी पड़ी। इसके अलावा दोरनापाल से जगरगुंडा रोड, अरनपुर से जगरगुंडा रोड, बासागुड़ा से जगरगुंडा रोड निर्माण की तेज गति के लिए इन सभी जगह के सभी अधिकारी और जवान की मेहनत को याद रख जाना चाहिए। अबूझमाड़ में भी आप अब ओरछा की ओर से जाटलूर तक और नारायणपुर से सोनपुर, कुतुल तक चार चक्के में पहुंच सकते हैं इसके लिए भी पूर्व के अधिकारियों के साथ वर्तमान एसपी जितेंद्र शुक्ला को श्रेय देना ही पड़ेगा।
पर नक्सलवाद के खात्मे और विकास को लेकर एक लोकतांत्रिक सरकार के जो लक्ष्य हो सकते हैं वह केवल पुलिस ही पूरा नही कर सकती, इस बात पर भी ध्यान रखना होगा। इन क्षेत्रों के लोगो की सबसे बड़ी मांग तो संवैधानिक अधिकार को लागू करने की है, उसे पुलिस नही देश की सरकार को लागू करना होगा। आजादी के बाद से लेकर अब तक आदिवासियों के अधिकार बस संविधान की पुस्तक में कैद होकर रह गयी है । पांचवी और छठवी अनुसूची के प्रावधानों , पेशा कानून , आदिवासी भूमि अधिग्रहण कानून , वन अधिकार अधिनियम जैसे कानूनों के रहते हुए भी बड़े कॉरपोरेट की लूट की भूख के आगे अब तक नतमष्टक रही सरकार की नीतियों का क्या होगा ? यही वो वजह है कि बस्तर के आदिवासी अपनी लड़ाई में किसी भी लोकतांत्रिक दल को अपने पास इतना करीब नही पाते जितना माओवादी को । बाकी मैं बार बार लिखते रहा हूँ कि बस्तर के आदिवासियों को न माओ से मतलब है और न मार्क्स से , उन्हें अपने जल जंगल और जमीन से मतलब है। जिसे लेकर उनकी लड़ाई माओवादियों के बस्तर प्रवेश से हजारों साल पुरानी है।
पर इन क्षेत्रों में जो पुलिस के अनुसार अभी भी माओवाद के प्रभाव में है, लोग तमाम बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। क्या वे रोड को ही खाएं, पीएं, उसे बिछाएं ? इन गांवों के अधिकांश लोगों ने हमसे खुलकर कहा कि वे चुनाव का बूथ अपने गांव में चाहते हैं, उन्हें सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, स्वास्थ्य की सुविधा चाहिए। रोड केवल खनिज और फोर्स के लिए ही है क्या ? यह सवाल इन्ही गांव के हैं । इन सवालों को जानने की कोशिश करने पर हमें 8 घण्टे थाने में बिठा लिया जाता है।
दूसरी बात विकास दिखाने के लिए सर्चिंग पार्टी के साथ अथवा सरकार की कमी या नक्सलवाद के उदय का कारण ढूंढने के लिए माओवादियों के वारग्रुप के साथ घूमने से बस्तर की सच्चाई आप लोगों तक पहुंचा ही नही सकते। युद्ध क्षेत्र घोषित नही है, पर है ही, इस सच्चाई को आप नजर अंदाज न करें। दोनो ओर से हर प्रकार का षड्यंत्र और युद्ध के सारे औजार इस्तेमाल किये जा रहे हैं। इनमे से कोई भी वार आप पर भी हो सकता है, इसमे आश्चर्य क्या ?