Chhattisgarh
सुको में वनाधिकार कानून के तहत आदिवासी तथा परंपरागत वनवासियों के जंगल अधिकार को मान्यता देने पर केंद्र – राज्य सरकारों के ढुल-मुल रवैये का पीयूसीएल (छ.ग.) ने कड़ा एतराज़ जताया है।
सर्वोच्च न्यायालय में वनाधिकार कानून के तहत आदिवासी तथा परंपरागत वनवासियों के जंगल अधिकार को मान्यता देने पर केंद्र – राज्य सरकारों के ढुल-मुल रवैये का छत्तीसगढ़ पीयूसीएल ने कडा एतराज़ किया है।
रायपुर। पीयूसीएल के प्रदेश अध्यक्ष डीपी चौहान और शालिनी गेरा ने प्रेस नोट जारी कर बताया कि; रायपुर में सम्पन्न राज्य स्तरीय सम्मेलन के मौके पर एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि; केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में समुचित पैरवी नही करने के कारण ही देश के एक करोड़ परिवार आज जबरन बेदखली के मुहाने पर हैं जो किसी भयंकर त्रासदी से कम नही होगी। गत 13 फरवरी को ‘वाइल्ड लाइफ फर्स्ट’ तथा अन्य के द्वारा दायर याचिकाओं, जिस पर आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के अधिकारों को चुनौती दी गयी है, की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने इक्कीस राज्यों को निर्देशित किया है कि जिन सामुदायिक और वैयक्तिक दावों को निरस्त किया जा चुका है, उन्हें अतिक्रमण मानते हुए उस पर काबिज लोगों को ही बेदखल कर दिया जावे। छत्तीसगढ़ राज्य के निवर्तमान सरकार द्वारा न्यायालय के आदेश पर दिए गए शपथ पत्र के अनुसार पूरे प्रदेश में लगभग 20095 परिवारों के उजाडे जाने की आशंका है, जो नागरिकों के मौलिक तथा संवैधानिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है।
तथ्यपूर्ण है कि यह कानून कोई सावधि योजना नहीं है बल्कि समुदायों के जंगल पर निर्भरता और मालिकाना हक को मान्यता देने एक सतत प्रक्रिया और निरंतर चलने वाली प्रभावी कानून है। यह कहना अनुचित नही होगा कि इस मामले पर भी राज्य सत्ता का चरित्र हर बार की तरह जनपक्षधर नही रहा और जो कानून जनसंघर्षों के फलस्वरूप ऐतिहासिक अन्याय को नष्ट करने की संकल्पना के साथ आया था, आज वही कानून प्रशासनिक विफलता के कारण देश के मूल रहवासियों को ही अतिक्रमणकारी और घुसपैठिया साबित करने पर तुला हुआ है।
यह कहने की जरूरत नही है कि छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह कानून लालफीताशाही का शिकार हो गया। कानून की मूल भावना के ही विपरीत दावों की अंतिम तारीख सुना दी गयी। ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सभाओं और वन समितियों को निष्प्रभावी करते हुए उनके सिफारिशों पर रोड़ा अटका दिए गए। वन ग्रामों में वनपाल और राजस्व ग्रामों में पटवारियों को उनके आकाओं के हुक्म स्पष्ट थे। इस कारण व्यापक पैमाने पर चौहद्दी और सीमांकन प्रभावित हुए। लाखों की संख्या में तो जानबूझकर दावे निरस्त कर दिए गए और दावाकर्ताओं को इसकी सूचना भी नहीं दी गयी जिस कारण बड़ी संख्या में जनजातीय एवं वनवासी समुदाय अपील करने के उनके प्राकृतिक न्याय के अधिकार से भी वंचित हो गए। अनुभाग स्तर पर दावों हेतु हजारों की संख्या में आवेदन स्वीकार नही किये गए। मनमाने तरीकों से दावों को अमान्य करते हुए निरस्त और वृहद उद्योग तथा भीमकाय खनन परियोजनाओं हेतु व्यपवर्तित कर दिया गया है। पूरे प्रदेश में जब तक परियोजना क्षेत्र में वैयक्तिक और सामुदायिक दावों का सम्पूर्ण निपटान नही हो जाता तब तक परियोजनाओं को अनुमति नही देने के प्रावधान का भी गंभीर उल्लंघन हुआ है।
छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखा जाए तो इस कानून के लागू होने के शुरुआत से ही राजकीय मशीनरी का रवैया नितांत जनविरोधी और शत्रुतापूर्ण रहा। रायगढ़ में जहां खड़ी फसल रौंद दी गयी, कवर्धा में राष्ट्रपति के दत्तक पुत्रों के घरौंदे उजाड़ दिए गए तथा बलौदा बाजार और बिलासपुर में दावाकर्ताओं के खिलाफ फ़र्ज़ी मुकदमे दर्ज कर वनाधिकारों का दमन कर दिया गया है।
ऐसी परिस्थितियों में यह स्पष्ट है कि प्रदेश में वनाधिकार कानून का सही क्रियान्वयन नही हो सका है और जब क्रियान्वयन ही विद्वेषपूर्ण हो तो दावों और अधिकारों को मान्यता प्रदान करने की प्रक्रिया कैसे विधिसम्मत हो सकता है ?
छत्तीसगढ़ पी यू सी एल संसद द्वारा पारित वनाधिकार कानून का विधिसम्मत पक्ष लेते हुए लाखों आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के नागरिक अधिकारों की संरक्षा का पुरजोर मांग करती है।
द्वारा जारी – लोक स्वातंत्रय संगठन छत्तीसगढ़।
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